Tuesday 25 February 2014

नेल्सन रोलिहलाहा मंडेला : 18 जुलाई, 1918-5 दिसंबर, 2013 गांधी से अधिक आम्बेडकर के नजदीक

विद्याभूषण रावत
नेल्सन मंडेला नहीं रहे। 6 दिसंबर की सुबह, जब भारत अपने संविधान निर्माता डॉ. आम्बेडकर को याद करने की तैयारी कर रहा था, तभी मंडेला की मृत्यु की खबर आई। मंडेला ने रंगभेद की समाप्ति के बाद के दक्षिण अफ्रीका की नींव रखी थी। पूरी दुनिया में उनकी मृत्यु का शोक मनाया जा रहा है परंतु अफ्रीकी उनके जीवन का उत्सव मना रहे हैं। पश्चिमी देश, जिन्होंने अफ्रीका और दुनिया के अन्य हिस्सों में मानवाधिकारों का जमकर उल्लंघन किया है, मंडेला का गुणगान करते नहीं थक रहे हैं।
उनको दी जा रही श्रद्धांजलियों में जो एक बात समान है वह यह कि वे इसलिए महान थे क्योंकि वे 'बदला लेने' में विश्वास नहीं रखते थे और वे 'एकीकृत' दक्षिण अफ्रीका के निर्माता थे। भारतीयों ने मंडेला को अपना मित्र बताने में देरी नहीं की। हमारे देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और कई नेताओं ने बार-बार दोहराया कि मंडेला ने गांधी से बहुत कुछ सीखा था।
हम भारतीय, पश्चिमी देशों के नागरिकों से कहीं अधिक पाखंडी हैं। यद्यपि यह सच है कि जवाहरलाल नेहरू ने दक्षिण अफ्रीका की रंगभेदी सरकार की स्पष्ट शब्दों में आलोचना की थी परंतु यह भी उतना ही सच है कि हमने उस सरकार को उखाड़ फेंकने की पर्याप्त कोशिश नहीं की। हम हमारे देश के अदृश्य रंगभेद को भुलाकर अफ्रीका के बारे में ढेर सारी बातें कह सकते हैं परंतु हमारे ही लोगों को सत्ता के ढांचे में उचित प्रतिनिधित्व देना हमें मंजूर नहीं है। मंडेला को दी गई श्रद्धांजलियों से भी भारत में व्याप्त जातिगत घृणा स्पष्ट झलकती है।
एक के बाद एक बड़े-बड़े नेताओं ने कहा कि मंडेला पर गांधीवादी मूल्यों का गहरा प्रभाव था। यह कहना मुश्किल है कि गांधी ने अफ्रीका के दिन-रात कमरतोड़ मेहनत करने वाले आम अश्वेतों के लिए क्या किया। जब गांधी अफ्रीका में थे तब भी उनका संघर्ष अश्वेतों के लिए नहीं वरन् वहां के भारतीय समुदाय के लिए था, जिनमें से अधिकांश गुजराती व्यवसायी थे। वे आज भी अफ्रीका के बड़े हिस्से में प्रभावशाली हैं और गोरों से कम नस्लवादी और जातिवादी नहीं हैं।
दूसरे, भारत में दक्षिण अफ्रीका की तुलना में कहीं बड़े पैमाने पर भेदभाव होता है। भारत के लगभग 16 करोड़ नागरिक अदृश्य रंगभेद के शिकार हैं, जिसे 'दैवीय' स्वीकृति प्राप्त है। संवैधानिक प्रावधानों के बावजूद, इनके अधिकारों की रक्षा करने में हम अक्षम रहे हैं और उनके साथ अन्याय बहुत आम है। मंडेला सन् 1990 में भारत आए थे। वह स्वाधीन भारत का सबसे उथल-पुथल भरा साल था। उस साल ओबीसी को आरक्षण देने की पुरानी मांग पूरी हुई थी और समाज के हाशिए पर पटक दिए गए एक तबके को शासन व्यवस्था में हिस्सेदारी करने का मौका मिला था। उसी साल भारत के संविधान निर्माता को सरकार ने देश के सर्वोच्च सम्मान भारत रत्न से सम्मानित किया। वीपी सिंह सरकार ने बाबा साहब आम्बेडकर और नेल्सन मंडेला को एक साथ भारत रत्न से विभूषित किया। भारत रत्न से विभूषित लोगों की सूची में ये दो नाम अलग नजर आते हैं क्योंकि अधिकतर मामलों में इन पुरस्कारों का प्रयोग, श्रेष्ठी वर्ग अपने हितों की रक्षा के लिए करता रहा है। सन् 1990 में पहली बार ऐसा लगा कि सही लोगों को भारत रत्न दिया गया है।
इसके बाद भी हमारे किसी विश्लेषक या टिप्पणीकार ने आम्बेडकर की पुण्यतिथि 6 दिसंबर को भी, मंडेला और आम्बेडकर के बीच समानताओं की चर्चा नहीं की। आम्बेडकर ने अकेले दलितों के अधिकार की लड़ाई लड़ी। ये दलित आज भी भेदभाव और पूर्वाग्रहों के शिकार हैं। प्रधानमंत्री ने गांधी का नाम लिया क्योंकि हमारे देश में हर नेता के लिए गांधी और नेहरु का नाम जपना अनिवार्य है। इन दोनों के नाम पर अनेक पुरस्कार स्थापित किए गए हैं। अगर मंडेला को आम्बेडकर को पढऩे का समय मिला होता तो मुझे विश्वास है कि वे आम्बेडकर के लंबे संघर्ष की सराहना करते। अगर दक्षिण अफ्रीका के अश्वेत आज भी परेशानियां भोग रहे हैं और अगर भारत के दलितों को आज भी गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार नहीं है तो फि र तथाकथित 'सत्ता हस्तांतरण' व 'समावेशी प्रजातंत्र'का क्या अर्थ है ? तथ्य यह है कि सत्ताधारी श्रेष्ठी वर्ग ने 'समावेशी प्रजातंत्र' को एक ऐसी व्यवस्था में बदल दिया है, जिसमें सत्ता, प्राकृतिक संसाधनों और देश की संपदा पर केवल उनका अधिकार हो गया है।
अब, जब कि मंडेला नहीं रहे, यह जरूरी है कि हम उन्हें भगवान न बनाएं। उनकी विरासत की आलोचनात्मक विवेचना आवश्यक है ताकि उन्होंने जो स्वाधीनता आंदोलन चलाया था, उसे सिर्फ  'माफ  करो और भूल जाओ'के खांचे तक सीमित न कर दिया जाए।
                                               (Published in  Forward Press,  Jan, 2014 Issue)

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पटवा समाज : शुद्धता के फेर में पड़े इंजीनियर

आशीष
पारसी समुदाय की तरह बिहार का पटवा समाज भी अन्य जातियों के लिए प्रेरणा का स्रोत बन गया है। समाज के सदस्यों की मेहनत रंग ला रही है। पारंपरिक रूप से बुनकर, अत्यंत पिछड़ी जाति के अंतर्गत आने वाला गया का यह समाज आज बड़ी संख्या में इंजीनियर पैदा करने के लिए जाना जाता है। मात्र 15,000 की आबादी वाला यह समाज 1996 से लेकर अब तक 400 से ज्यादा आईआईटी इंजीनियरों को पैदा कर चुका है।
लगभग 1,200 घरों में रहने वाले पटवा समाज के सदस्यों में से कुछ पूरी तरह से पावरलूम के पेशे पर आश्रित है। समाज में पढने-लिखने का चलन पहले ना के बराबर था। वर्ष 1971 में पहली मर्तबा समाज के रामलगन प्रसाद ने आईआईटी की परीक्षा उत्तीर्ण की और आईआईटी खडग़पुर में आर्किटेक्ट बने, लेकिन घर में डकैती हो जाने से वो आगे की पढाई जारी नहीं रख सकें। वर्ष 1996 में ठाकुर प्रसाद के बेटे जितेंद्र कुमार से लेकर वर्तमान के 2013 तक इस समाज के कुल 400 युवा आईआईटी के क्षेत्र में देश व विदेश में अपनी सफ लता का झंडा गाड़ चुके हैं, जिसमें 19 छात्र अमेरिका में कार्यरत हैं।
लेकिन वहीं दूसरी ओर यह समाज उतना ही परंपरावादी और रूढिवादी भी है। अमेरिका और कनाडा में भी नौकरी कर रहे युवाओं को अपने ही समाज में आकर शादी करनी पड़ती है। अंतर्जातीय विवाह की यहां सख्त मनाही है, क्योंकि समाज के बुजुर्गों को यह आशंका सताती है कि इससे उसकी जातीय संरचना गड़बड़ा जाएगी। पटवा समाज के बुजुर्गों की इस आशंका में कितना दम है यह तो हम नहीं जानते, लेकिन एक बात सच है कि कहीं पटवा समाज भी उस गति को न प्राप्त कर जाए जिस गति को आज भारत का पारसी समुदाय प्राप्त कर चुका है और अपनी जातीय श्रेष्ठता को बरकरार रखने के चक्कर में लगभग विलुप्ति के कगार पर पहुंचता जा रहा है।
पावरलूम संचालक हेमंत कुमार से मुलाकात हुई तो उन्होंने बताया कि पटवा समाज करीब 200 से अधिक सालों से रूढिवादी तरीके से जीता आ रहा है, मसलन समाज के लोग जाति से बाहर जाकर शादी-विवाह नहीं कर सकते। अगर ऐसा होता है तो समाज के पंचायत द्वारा उसका बहिष्कार कर दिया जाता है। उन्होंने बताया कि पंचायत द्वारा अब तक कई लोगों का बहिष्कार किया जा चुका है। वहीं 57 वर्षीय मेघनाथ प्रसाद बताते हैं कि जाति से बाहर जाकर शादी करना पटवा संस्कृति व परंपरा के खिलाफ  है। वे यह भी बताते हैं कि हालांकि लड़कियों को कोई 20 साल पहले तक परिवार की माली हालत को देखते हुए जाति से बाहर शादी करने की छूट पंचायत द्वारा मिली हुई है, लेकिन लड़कों को यह छूट बिल्कुल भी नहीं है। वो यह भी बताना नहीं भूलते कि पटवा समाज जो गौरिया पटवा समाज के नाम से जाना जाता है, अंतर्जातीय विवाह नहीं होने के कारण ही आज भी सुरक्षित है। वो बताते हैं कि पटवा समाज ही एक ऐसा समाज है, जहां दहेज प्रथा पूरी तरह से निषेध है, जिसके कारण पटवा समाज की गरीब लड़की की शादी भी अमेरिका व कनाडा में काम कर रहे समाज के लड़के के साथ आसानी से हो जाती है। हालांकि एक बात यहां महत्वपूर्ण है कि मानपुर स्थित इस समाज के लोगों की शादी मुख्य तौर पर मानपुर, चांकद व डंगरा स्थित रहने वाले पटवा समाज के अलावा पूरे राज्य व देश में कहीं भी नहीं होती है। बातचीत के क्रम में कई बार चूड़ामणि पाटेश्वरी यह कहने से नहीं चूकते कि आज इस टोले में रहने वाली अगड़ी जाति के अभिभावक भी अपने बच्चों के भविष्य को लेकर उन्हीं के पास राय-मशविरा करने आते हैं। हालांकि इस मसले पर समाज की युवा पीढ़ी कहती है कि जिस प्रकार उनके अंदर शिक्षा को लेकर चेतना का भाव पैदा हुआ, उसी तरह रूढि़वादिता को लेकर भी एक दिन समाज के अंदर बदलाव होगा।

                                                      (Published in  Forward Press,  Jan, 2014 Issue)


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सावित्रीबाई के कार्यों को आगे बढ़ाती 'क्रांतिज्योति'

प्रतिक्षा दापूरकर/अमरेंद्र यादव
'क्रांतिज्योति' सावित्रीबाई फुले द्वारा प्रज्ज्वलित ज्योति को पुणे के एक स्वयंसेवी महिला संगठन ने आज भी जलाए रखा है। पुणे ही वह शहर था जहां भारत की सामाजिक क्रांति की शुरुआत हुई। अग्रसेन हाई स्कूल रोड पर येरवडा नामक एक भवन में एक मामूली से घर में स्थित इस संगठन का नाम 'क्रांतिज्योति'उचित ही है क्योंकि यह संस्थान भारत की पहली शिक्षिका सावित्रीबाई फुले के कार्यों को आगे बढ़ाने का कार्य कर रही है। यह घर महिलाओं ने किराए पर ले रखा है।

'क्रांतिज्योति' नाम से चलने वाली इस संस्था की विशेषता है कि इसमें कार्य करने वाली महिलाएं दलित-बहुजन समुदायों से आती हैं और अपने अस्तित्व को बचाने की खातिर बजाब्ते प्रशिक्षित और संगठित होकर अपनी लड़ाई लड़ रही हैं। संस्था की महिलाओं का मानना है कि महिलाओं के साथ गांव और शहर दोनों ही जगह भेदभाव बरतने का प्रतिशत बहुत ही ज्यादा है। राष्ट्रपिता जोतिबा फुले और डॉ. बाबा साहेब आम्बेडकर के आंदोलन में महिलाओं की आजादी और उनके विकास के मॉडल से ये प्रेरणा लेती हैं और उनकी धरोहर को जीवित रखते हुए इस संस्था के लिए कार्य कर रही हैं। वे कहती हैं कि भारत के संविधान में सभी जाति, धर्म, वर्ग और लिंग के लोगों को समान अधिकार तो दे दिए गए हैं परंतु सामाजिक जीवन में आज भी विषमतावादी व्यवस्था के समर्थकों ने महिलाओं को उनके अधिकारों से दूर ही रखा है। इस वजह से महिलाएं हमेशा के लिए दूसरों पर निर्भर और हताशा भरी जिंदगी जीने को विवश रहती हैं।

महिलाओं को हताशा भरी जिंदगी से उबारने के लिए महाराष्ट्र के उत्तरपूर्वी जिले अमरावती के यशोदा नगर में पली-बढी अर्चना नामक एक युवती ने कुछ स्थानीय महिलाओं के साथ मिलकर 'क्रांतिज्योति' नामक संगठन की नींव डाली। अर्चना संगठन की संचालिका भी हैं जिनके अनुसार 'महिलाओं में निर्भिकता और आत्मविश्वास जगाना 'क्रांतिज्योति' की प्राथमिकता है क्योंाकि जब महिलाओं में आत्मविश्वास आ जाएगा तो वे स्वयं, परिवार और अपने समुदाय की समस्याओं को जानने का प्रयास कर समाधान के लिए भी पहल करेंगी। महिलाएं 'क्रांतिज्योति' के कार्यालय में आकर प्रशिक्षण लेती हैं। अर्चना संगठन की कार्यपद्धति पर प्रकाश डालते हुए कहती हैं, जोतिबा और सावित्रीबाई फुले के विचारों को बढावा देकर महिलाओं में शिक्षा, सामाजिक उत्तरदायित्व की भावना भरना ही मूल उद्देश्य है। वह कहती हैं, 2010 में शादी के बाद कुछ रकम उधार लेकर किराये पर मकान लिया और अपने उद्देश्य को पूरा करने में लग गया। आज वह एक उत्कृष्ट विचारधारा वाली संस्?था को ट्रस्ट में पंजीकृत कर महिलाओं को सक्षम, साक्षर, निडर और अपने आप को लीडर बनाने का कार्य कर रही है
'क्रांतिज्योति'ने समुदाय स्तर पर नेतृत्व विकास कार्यक्रम (सीएलटीपी) का आयोजन कर एक श्रृंखला बनाई। इस नेतृत्व विकास कार्यक्रम की वजह से आज बहुजन महिलाएं खुद की समस्याएं सुलझाने में सक्षम हुई हैं, साथ ही वह बस्ती या समुदाय के प्रश्नों की तरफ भी ध्यान देने लगी हैं। कई महिलाएं जिन्होंने घर की गली तक ठीक से देखी नहीं थीं और अपना नाम तक बताने से घबराती थीं, आज वह कार्यक्रमों, आंदोलनों में अपनी समस्यारओं के बारे में खुलकर चर्चा करती हैं और समस्या के समाधान के लिए पहल भी करती हैं।
'क्रांतिज्योति'महिलाओं को रोजगार देने के लिए भी कृतसंकल्पित है। इस संगठन के साथ जुड़ी महिलाएं 'उद्योग का विकास' का प्रशिक्षण लेकर खुद अपना खर्च उठाने में सक्षम हो रही हैं। 'क्रांतिज्योति' में आठ महिलाएं पूर्णकालिक कार्यकर्ता बनी हुई हैं और 40 से ज्यादा स्वयंसेवक के तौर पर कार्य कर रही हैं। इतना ही नहीं, यहां 600 से भी ज्यादा महिलाओं का एक मजबूत नेटवर्क भी बना है। इस तरह हम कह सकते हैं कि सही मायने में 'क्रांतिज्योति' महिलाओं की जीवन स्थिति को सुधारने में सावित्री बाई फुले के सपनों को पंख देने का कार्य कर रही है। उनकी सबलता के लिए यहां अलग-अलग विभाग भी बने हुए हैं और इस उद्देश्य से 'क्रांतिज्योति'स्टडी एवं ट्रेनिंग सेंटर (केएसटीसी) और रमाई व्यावसायिक ट्रेनिंग एवं बिजनेश सेंटर(आरवीटीसी) नामक दो मुख्य कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। वहीं दूसरी ओर 'क्रांतिज्योति' विचार मंच के तहत नेटवर्क से बाहर की महिलाओं के साथ भी संवाद स्थापित करती है। विचार मंच के तहत चर्चा सत्र, स्पर्धा, शिविर तथा कार्यशाला के माध्यम से जागरुकता कार्यक्रम नियमित रूप से चलता रहता है। इतना ही नहीं संस्था शिक्षा को बढावा देने के लिए 'क्रांंतिज्योति स्कॉलरशीप योजना' के तहत सातवीं, आठवीं और नौंवी के विद्यार्थियों के बीच एक परीक्षा का आयोजन कर 9 छात्राओं को दो-दो हजार की छात्रवृत्ति भी प्रदान करती है। सामाजिक, मानसिक, शैक्षणिक, आर्थिक, स्वास्थ्य तथा व्याक्तित्व विकास के लिए संस्था की संचालिका अर्चना ने एक साप्ताहिक पत्रिका भी शुरू की थी जो आर्थिक परेशानियों की वजह से 16 अंक निकलने के बाद बंद हो गई। आज भी सैकड़ों मुश्किलों के बावजूद 'क्रांतिज्योति'हर महिला में क्रांतिज्योति जला सावित्रीबाई फूले के सामाजिक कार्यों की परंपरा को आगे बढा रही है।
                                                      (Published in  Forward Press,  Jan, 2014 Issue)
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अलविदा सच्चे टार्जन !

अक्षय नेमा मेख
1959 में  बस्तर का नाम अपनी कला से दुनिया में रोशन करने वाले चेंदरू 18 सितंबर, 2013 को इस दुनिया को अलविदा कह गए। चेंदरू राम मण्डावी वही शख्स हैं जो बचपन में बाघ के साथ खेला करते थे और उसी के साथ अपना अधिकतर समय बिताते थे। बाघों से उनकी इस दोस्ती से प्रभावित होकर 1959 में ही सुप्रसिद्ध स्वीडिश फिल्मकार अर्ने सक्सडॉर्फ ने चेंदरू और उसके पालतू शेर को लेकर एक फिल्म बनाई, जिसका नाम 'ए जंगल टेल' रखा। इस फिल्म ने पूरी दुनिया में धूम मचा दी। वहीं सक्सडॉर्फ की पत्नी और सुप्रसिद्ध स्वीडिश जन्तुविज्ञानी स्टेन वर्गमैन की पुत्री ऑस्ट्रिड सक्सडॉर्फ ने उसी दरम्यान एक पुस्तक लिखी। इस पुस्तक का सर्वप्रथम प्रकाशन 1960 में फ्रांस से 'चेंदरू एट सन टाइगर'शीर्षक से तथा अंग्रेजी उपन्यासकार विलियम सैनसम द्वारा अंग्रेजी में किया गया अनुवाद यूनाइटेड स्टेट्स (हैरकोर्ट ब्रेस एंड कम्पनी, न्यूयार्क) से 'चेंदरू : द ब्वॉय एंड द टाइगर' शीर्षक से हुआ। इस कारण लोगों ने उन्हें 'टाईगर ब्वॉय टार्जन' और 'मोगली'जैसे नाम देने शुरू कर दिए थे।

फिल्म के प्रदर्शन के समय फिल्म निर्माता चेंदरू को भी अपने साथ स्वीडन समेत दूसरे देशों में ले गए। इस आदिवासी बालक की इस दौरान जैसे पूरी दुनिया ही बदल गई थी। मगर गढ़बेंगाल गांव के चेंदरू जब भारत वापस आए तो कई सालों तक यहां अनमने से रहे। गांव के लोगों से अलग-थलग और बदहवास, जिसके चलते वे बीमार रहने लगे और धीरे-धीरे बिगड़ते स्वास्थ्य के साथ वे पक्षाघात का शिकार हो गए। अपने अंतिम दिनों में जगदलपुर के सरकारी अस्पताल में जिंदगी और मौत से जूझते 'टाइगर ब्वॉय' की बदहाली और बदहवासी को मीडिया में कुछेक सुर्खियां तो मिलीं मगर जल्दी ही सब कुछ भुला दिया गया। अस्पताल में भर्ती 78 वर्षीय चेंदरू की स्थिति जब गंभीर बनी हुई थी, उस वक्त कोई उनकी मदद के लिए सामने नहीं आया। चेंदरू के बेटे जयराम मण्डावी को लगता है कि यदि उनके पिता को आर्थिक सहायता मिलती तो शायद वे कुछ वर्ष और जीते। जयराम बताते हैं की 'जब पिताजी बीमार पड़े तो एक जापानी महिला ने डेढ़ लाख रुपये की मदद की। इसके अलावा प्रदेश के एक मंत्री ने 25 हजार रुपये दिए लेकिन इसके बाद किसी ने हमें पूछा तक नहीं।'

अफसोस कि छत्तीसगढ़ को विश्व पटल पर पहचान दिलाने वाला यह शख्स गुमनामी की जिंदगी जीता हुआ मर गया। उसकी अंतिम पुकार या कहे अंतिम दहाड़ न तो राजनीतिक मुद्दा बनी और न ही स्वप्न का खजाना दिखाने वाले मीडिया में चर्चा का विषय बन पाई। चेंदरू को शूटिंग के दौरान रोजाना दो रुपये मिला करते थे। एक बार तो मुंबई में उनकी मुलाकात भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरु से हुई थी तब नेहरु जी ने उन्हें पढने-लिखने पर नौकरी देने का भरोसा दिलाया था। तब उसे नहीं मालूम था की वह सरकारी सहायता के इतने करीब फिर कभी नहीं पहुंचेगा।

राज्य व केंद्र सरकार द्वारा चेंदरू के लिए कुछ न करना निश्चय ही अफसोसनाक है। विडंबना यह है कि मौजूदा दौर में मानवाधिकार और आदिवासी संस्कृति के संरक्षण की बात करके बस्तर जैसी जगहों पर डेरा जमाने वाले हमारे सैकड़ों सामाजिक कार्यकर्ताओं व गैरसरकारी संगठनों को भी 'टाइगर ब्वॉय'की आवाज सुनाई क्यों नहीं दीं ? अस्पताल के बिस्तर पर पड़े चेंदरू के खामोश चेहरे और दर्द भरी आंखों ने उन्हें क्यों नहीं झकझोरा ?

-अक्षय नेमा मेख फारवर्ड प्रेस के संवाददाता हैं

Forward Press                                   (Published in  Forward Press, Jan2014ssue)






Wednesday 12 February 2014

Namdeo Dhasal 1949-2014,He was not a progressive but a revolutionary poet


SANJIV KHUDSHAH
amous Marathi poet and founder of the Dalit Panthers Namdeo Dhasal passed away on 15 January. Born on 15 February 1949 in a Dalit (Mahar)family in Pune, Dhasal’s childhood was spent inMumbai amidst gruelling poverty. In the initial days,he earned his livelihood by driving a taxi in Mumbai.Summing up Dhasal’s contribution to poetry, Hindiwriter Uday Prakash says, “Dhasal was a revolutionary poet in the real sense of the term. You cannot callhim progressive. His poetic expressions were intense and piercing. He imported the language born on theroads and in the gutters into poetry and transformed
the poetic tradition.”Dhasal first came into the limelight when, in 1972, he constituted the Dalit Panthers. This organizationwas inspired by the American Black Panthers movement,which opposed the atrocities committed by thewhites on the blacks. In keeping with their names, thesymbol of both the organizations was a panther. Theorganization had a pan-Indian presence and workedon socio-economic issues. Whenever any incident ofrepression of Dalits took place, the Dalits Panthers was there. The workers of the organization called themselves Panthers because they fought againstatrocities on Dalits like a Panther. The rise of the Dalit Panthers coincided with that of Dalit literature. All the three founders – Arun Kamble, Namdeo Dhasal and Raja Dhale – were litterateurs. Namdeo Dhasal’s revolutionary poems inspired even unlettered Dalits to agitate and protest.
     It is said that Dhasal’s first collection of poems Golpitha carved out a unique place for itself not only in Marathi literature but also in the literature of South Asia. After that, his collections of poems Murkha Mahatrane, Tujhi Iyata Kanchi, Khel and Priyadarshini also won wide appreciation. He also wrote two novels Andhle Shatak and Ambedkari Chalwal. Political letters written by him were also much talked about. The Sahitya Academy conferred a Golden Jubilee Lifetime Achievement Award on him. In 1999, the Government of India honoured him with the Padma Shri. Famous author and Nobel laureate VS Naipaul, in his book A Million Mutinies Now, has devoted an entire chapter to him. He was broad-minded and liberal. He wrote a column for the Shiv Sena’s organ Samna for many years. When invited, he even took part in the programmes of the RSS. He was criticised for this. Speaking at an RSS programme he said, “In keeping with the principles of Baba Saheb Ambedkar, I have vowed to act as a bridge between the Dalit and the upper caste communities and for the last 40 years I have been doing this at an individual and organizational levels. I am not a member of the Sangh Parivar but if he Sangh, based on its 40-50 years’ experience, wants to do something to bring about social change, I have no problem. I do not consider the Sangh untouchable. I know that some progressives will hurl abuses at me for sharing the platform with RSS leaders. I am a principled man and an ordinary worker who believes in following the path shown by Dr Ambedkar. I lost my childhood owing to the caste system. I come from the Mahar caste of Maharashtra and am a converted Buddhist.” Whether it was right on his part to attend such programmes can be a matter of debate but the quote from his speech shows how he attended programmes of upper castes and put forth the stand of the Dalits with full conviction and confidence.
In the end, I would like to introduce you to a famous poem of his. It has been translated into Hindi by Suryanarayan Ramsubhe: Hey meri priya kavita (Oh, my dear poem) Nahi basana hai mujhe alag se koyee dweep (I don’t want to create my separate island) Tu chalti rah, aam se aam admi kee ungli pakad (You continue walking, holding the hand of the commonest of common man) Mere priya kavite (My dear poetry) Jahan se mene yatra shuru kee thee (From where I had begun my journey) Phir se waheen aakar rukna mujhe nahi pasand (I do not like to come back there again) Mein langhna chahta hoon (I want to cross over) Apna purana kshitij (My old horizon)
                                                         (Published in  Forward Press,  Feb, 2014 Issue)
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