Monday 21 April 2014

आंखों के सामने हुआ नामकरण

हरेराम सिंह
हिंदी साहित्य जगत में पिछले कुछ समय से ओबीसी साहित्य की चर्चा आरंभ हुई है। इसे लेकर अनेक मत सामने आ रहे हैं। इस अवधारणा के विरोधियों का कुतर्क है कि 'ओबीसी साहित्य' की अपनी कोई सैद्धांतिकी नहीं है, जबकि अनेक विद्वानों ने सुचिंतित तर्कों द्वारा यह साबित किया है कि ओबीसी साहित्य की अवधारणा का जन्म अनायास नहीं हुआ है, इसके पीछे कबीर, मखली गोसाल, जोतिबा फू ले आदि अनेक असाधारण चिंतकों का वैचारिक बल है।
और इस तरह हम देखते हैं कि हिंदी में ओबीसी साहित्य और बहुजन साहित्य की कोटि प्रस्तुत करनेवाली पहली पत्रिका 'फारवर्ड प्रेस' बनी।

पत्रिका की 'बहुजन साहित्य वार्षिकी 2013' में प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन ने लिखा है कि 'बहुजन साहित्य' की अवधारणा का जन्म 'फारवर्ड प्रेस' के संपादकीय विभाग में हुआ तथा इसका श्रेय हमारे मुख्य संपादक आयवन कोस्का, आलोचक व भाषाविज्ञानी राजेन्द्र प्रसाद सिंह तथा लेखक प्रेमकुमार मणि को है और आयवन कोस्का ने 'बहुजन साहित्य वार्षिकी 2012' में इसकी पुष्टि भी की है। अपने संपादकीय में उन्होंने लिखा है कि 'पिछले साल जुलाई में प्रोफेसर राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने 'ओबीसी साहित्य' पर अपने आलेख के द्वारा इस विमर्श की शुरु आत की थी। दरअसल यह आलेख 'ओबीसी साहित्य की अवधारणा'है जो 'फारवर्ड प्रेस' के जुलाई, 2011 अंक में प्रकाशित है। मराठी में ओबीसी साहित्य का जन्म पहले हो चुका था।' आयवन कोस्का ने 'फ ारवर्ड प्रेसÓ के जुलाई, 2011 के संपादकीय में लिखा है कि फ रवरी, 2008 में मुझे नासिक में दूसरे अखिल भारतीय ओबीसी साहित्य सम्मेलन में वक्तव्य देने के लिए निमंत्रित किया गया था और उस दौरान मुझे यह अहसास हुआ कि उस मराठी जमावड़े में शायद ही किसी को मालूम था कि 'ओबीसी साहित्य' किस बला का नाम था, है या होना चाहिए,मराठी में भी।....... बिहार के प्रोफेसर राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने ओबीसी साहित्य पर एक संजीदा लेख लिखा है। ओबीसी साहित्य विषय पर गंभीर चर्चा एवं बहस की शुरुआत करने हेतु 'फारवर्ड प्रेस' यह आलेख प्रस्तुत करते हुए फ ख्र महसूस करती है। 'मोहल्ला लाइव' ने प्रस्तुत लेख को 'ओबीसी साहित्य का मैनिफेस्टो'ट कहते हुए इस पर बहस चलाई।

'फारवर्ड प्रेस' के सिंतबर, 2011 अंक में ललन प्रसाद सिंह ने 'ओबीसी साहित्य : माक्र्सवादी परिप्रेक्ष्य' शीर्षक आलेख लिखा। इसमें उन्होंने बताया कि न्याय के लिए संघर्ष तो ओबीसी की नियति है। उसी संघर्षशील सांस्कृतिक चेतना की सृजनात्मक तथा आलोचनात्मक अभिव्यक्ति ओबीसी साहित्य में होती है। इसी अंक में आयवन कोस्का, प्रमोद रंजन, राजेन्द्र यादव एवं संजीव का ओबीसी साहित्य पर आपसी विमर्श छपा है। इस विमर्श में राजेन्द्र यादव ने कहा कि ओबीसी साहित्य नामक जैसी कोई चीज नहीं है। परंतु संजीव ने माना कि विमर्श शुरू होना चाहिए।

'फारवर्ड प्रेस' के नवंबर, 2011 अंक में ओबीसी साहित्य पर दो आलेख आए। एक कंवल भारती का और दूसरा प्रेमकुमार मणि का। प्रेमकुमार मणि ने स्वीकारा है कि आज जो ओबीसी साहित्य की बात उठ रही है उसके पीछे दलित साहित्य की संकीर्णतावादी सोच है। इसे मिल-बैठकर, विमर्श कर दूर करना ही श्रेयस्कर है। कंवल भारती ने लिखा है कि सिद्धांत और व्यवहार पक्ष में दलित और ओबीसी धारा समान हैं-दोनों का ही लक्ष्य जातिविहीन समाज की स्थापना करना है। इसलिए दलित साहित्य ओबीसी साहित्य का स्वागत करेगा।
'बहुजन साहित्य वार्षिकीÓ 2012 में राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने बहुजन साहित्य को परिभाषित करते हुए लिखा कि वस्तुत: बहुजन साहित्य एक व्यापक अवधारणा है जैसे भक्ति काव्य। भक्ति काव्य में जैसे संत, सुफी, राम और कृष्ण काव्यधाराओं का समाहार है, वैसे ही बहुजन साहित्य में भी ओबीसी, दलित, आदिवासी और एक सीमा तक स्त्री विमर्श की साहित्य धाराओं का समाहार है। प्रमोद रंजन ने 'बहुजन साहित्य वार्षिकीÓ 2013 में दूसरे शब्दों में स्पष्ट किया कि 'बहुजन साहित्य को उस बड़ी छतरी की तरह देखा जाना चाहिए जिसके अंतर्गत दलित साहित्य के अतिरिक्त शूद्र साहित्य, आदिवासी साहित्य तथा स्त्री साहित्य आच्छादित है। आंबेडकरवादी साहित्य, ओबीसी साहित्य आदि जैसी अनेक शब्दावालियों, विचार, दृष्टिकोण इसके आंतरिक विमर्श में समाहित है।'
'फारवर्ड प्रेस' के फरवरी, 2012 अंक में अभय कुमार दुबे ने यह विचार रखा कि पिछड़े वर्ग का अपना कोई अलग साहित्य नहीं है, न ही उनके पास अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां है। राजेन्द्र प्रसाद सिंह के दो आलेख अगस्त, 2012 एवं सितंम्बर, 2012 के फारवर्ड प्रेस में प्रकाशित हुए-ओबीसी नवजागरण का प्रथम चरण तथा ओबीसी नवजागरण का दूसरा चरण। इन लेखों में स्पष्ट किया गया कि भारतीय इतिहास में कई चरणों एवं कई रूपों में ओबीसी नवजागरण उपलब्ध है। अगस्त, 2012 के 'फारवर्ड प्रेस' में बजरंग बिहारी तिवारी ने स्वीकार किया कि राजेन्द्र प्रसाद सिंह 'ओबीसी साहित्य' के मान्य सिंद्धातकार हैं और उनका स्थान ओबीसी साहित्य में वही है जो दलित साहित्य में डॉ. धर्मवीर का है। 'बहुजन साहित्य वार्षिकी 2012' में वीरेंद्र यादव ने लिखा कि जब साहित्य की मुख्यधारा बहुजन समाज के सरोकारों से जुडऩे का जतन कर रही हो, तब 'ओबीसी साहित्य' की किसी भी अवधारणा की न तो कोई आवश्यकता है और न कोई औचित्य। परंतु इतना तो तय है कि बहुजन समाज के सरोकारों की ही एक धारा ओबीसी साहित्य है।
जयप्रकाश कर्दम ने 'दलित साहित्य 2012' की वार्षिकी में ओबीसी साहित्य पर संपादकीय लिखते हुए अपना मत दिया है कि गत् वर्ष के दौरान हिंदी साहित्य में जो भी बहस चली है, उसमें सर्वाधिक उल्लेखनीय राजेन्द्र प्रसाद सिंह द्वारा ओबीसी साहित्य को लेकर शुरू की गई बहस है.......यदि ओबीसी लेखक पृथक ओबीसी साहित्य की स्थापना करना चाहते हैं तो यह आपत्तिजनक नहीं है। महत्वपूर्ण है उनका ब्राह्मणवादी-सामंतवादी साहित्य और साहित्यकारों के प्रभाव और छाया से बाहर निकलना। जाहिर है कि कंवल भारती और जयप्रकाश कर्दम जैसे दलित सरोकारों के विचारकों ने ओबीसी साहित्य को कुछेक शर्तों के साथ मान्यता दी है। जबकि ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इसका विरोध किया है। उनका मानना है कि आज भी ओबीसी में जन्मा रचनाकार अपने को ओबीसी कहलाने में अपमान समझता है। जबकि दलित सरोकारों के रचनाकार अपने को दलित लेखक कहने में गर्व महसूस करते हैं।
हिंदी के प्रखर आलोचक तथा 'फारवर्ड प्रेस' के प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन ने ओबीसी साहित्य/बहुजन साहित्य पर कई विचारोतेजक लेख लिखे हैं। उनका एक महत्वपूर्ण लेख 'आज के तुलसीगण' है। रमणिका गुप्ता ने माना है कि दलित साहित्य प्रचुर मात्रा में आ चुका है। पिछड़ा साहित्य इसमें इजाफा ही करेगा। वे तो अपनी पत्रिका 'युद्धरत आम आदमी'का ओबीसी विशेषांक प्रकाशित करने की तैयारी में हैं। इधर 24-25 मई, 2013 को हरिनारायण ठाकुर ने बारा चकिया; बिहार में यूजीसी प्रायोजित एक राष्ट्रीय संगोष्ठी करवाई। इसमें ओबीसी साहित्य पर भी गंभीर विमर्श हुआ। कहना न होगा कि ओबीसी साहित्य अब स्थापित हो चुका है। इसे उखाड़ फेंकना आसान नहीं होगा।
-'फारवर्ड प्रेस साहित्य एवं पत्रकारिता सम्मान : 2013' से सम्मानित हरेराम सिंह कवि और आलोचक हैं। यह पुरस्कार फारवर्ड प्रेस पाठक क्लब, सासाराम की ओर से फारवर्ड प्रेस में प्रकाशित बहुजन लेखक/पत्रकार की श्रेष्ठ लेख/रिपोर्ट के लिए दिया जाता है
                                                                (Published in  Forward Press, January 2014 Issue)

Forward Press.

'मैं मुलाना,मुफ़्ती चक्‍कर में नहीं रहता'

बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर ने कभी कहा था कि 'हिन्दू दलितों से मुसलमान दलितों की स्थिति बदतर है।'वह परिस्थिति आज भी लगभग जस की जस बनी हुई है। पसमांदा मुसलमानों ने अपनी आवाज बुलंद करने के लिए 1998 में 'ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज' का गठन किया था। बिहार विधान परिषद् के उपसभापति सलीम परवेज इस संगठन के अध्यक्ष रहे हैं। पसमांदा समाज के बाबत उनसे अनेक पहलुओं पर बातचीत की है फारवर्ड प्रेस के छपरा संवाददाता अमलेश प्रसाद ने। बातचीत के अंश प्रस्तुत हैं...

पसमांदा समाज से निकलकर बिहार विधान परिषद् के उपसभापति पद तक का सफर कैसा रहा ? 
मेरा संयुक्त परिवार था, जो बढ़ती पर ही टूट गया और मुझे सऊदी अरब जाना पड़ा। छह साल तक एक कंपनी में काम किया। वहीं 1990 में अपना कारोबार शुरू किया लेकिन हमेशा अपने गांव की गरीबी, बदहाली याद आती रही। 2000 में अपने गांव वापस आया। 'सर्विस टू यूनिटी, सर्विस टू गॉड' को अपनी जिंदगी का उद्देश्य बना लिया। अरब से जो पैसा मिला, उसे पसमांदा समाज के लोगों की शादी, बच्चों की पढ़ाई में लगाया। 2009 में हालात कुछ ऐसे आ गए कि मुझे बसपा से छपरा लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लडऩा पड़ा। चुनाव हार गया, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। इसी बीच नीतीश जी का निमंत्रण मिला और मैं विधान पार्षद् बन गया। 2010 में बिहार विधान सभा के चुनाव मैं मैंने नीतीश जी को पूरी मदद की, जिसके पुरस्कारस्वरूप मुझे बिहार विधान परिषद् के उपसभापति का पद मिला। हिन्दुस्तान में मैं अंसारी परिवार का पहला व्यक्ति हूं जिसे यह पद मिला है।    

समाज सेवा/व्यवसाय के क्षेत्र से राजनीति में क्यों आए ?
जब मैं पढता था तब मेरे बड़े जीजा डॉ. शार्दूल हक ने मेरा नामांकन दाता मेडिकल कॉलेज में करवा दिया था, लेकिन मेरे पास पढऩे के लिए पैसे नहीं थे और मुझे सऊदी अरब जाना पड़ा। मैंने बहुत नजदीक से गरीबी देखी है। जब मेरी आर्थिक स्थिति ठीक हुई, मेरी अंतरात्मा ने आवाज दी-'गांव चलो और बदहाल लोगों की सेवा करो।'आज भी मैं अपने को एक समाजसेवी ही समझता हूं, न कि विधान पार्षद् और न ही उपसभापति।

पसमांदा समाज के खस्ताहाल के लिए किसको जिम्मेदार मानते हैं ?
खस्ताहाल के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। हमें हर तरह से शिक्षित नहीं करने की साजिश की गई। मैंने ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज को एक गाड़ी दी है, जिस पर लिखा है 'आधी रोटी खाएंगे, बच्चों को पढ़ाएंगे।'हमारे बीच तालीम की कमी है। हमें खानों-खानों में बांटा गया। जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर डराया गया, लेकिन इस सरकार की देन है कि लोग अब अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं। तालीम से ही हालात सुधरेंगे।
 
पसमांदा समाज के लिए नीतीश सरकार ने क्या योजनाएं लागू की हैं ? 
हम पसमांदा लोग ही नहीं, बल्कि पूरे बिहारवासी खुशनसीब हैं कि आजादी के बाद पहली बार नीतीश कुमार जैसा मुख्यमंत्री मिला है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि उन्होंने बच्चों में आत्मनिर्भरता पैदा की है। दसवीं पास बच्चियों के लिए नीतीश जी ने दस हजार वजीफा देने की घोषणा की है। इससे स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ी है। 2,459 मदरसों को मंजूरी मिली है। अब बच्चों को किताबें, कॉपी व पोशाक और तालीमी मरकज सेवकों का वेतन मिलने लगा है।

नीतीश सरकार में एक भी मंत्री पसमांदा समाज का नहीं है ? यहां तक कि मुसलमानों के सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक व धार्मिक संस्थाओं का अध्यक्ष भी कोई पसमांदा नहीं है ? 
नीतीश जी सोशल इंजीनियरिंग के माहिर आदमी हैं। वो काम चाहते हैं। आजतक किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री ने इतनी इज्जत नहीं दी, जो इज्जत पसमांदा समाज को उन्होंने दी है। मैं पसमांदा समाज का पहला आदमी हूं, जो इस संवैधानिक पद पर बैठा हूं।

कुछ लोग कहते हैं कि आरक्षण इस्लाम के विरुद्ध है। हैदराबाद के एक मुफ्ती का कहना है कि पसमांदा समाज को आरक्षण देना हराम है ? 
मैं कभी मौलाना और मुफ्ती के चक्कर में नहीं रहता। किसी मुफ्ती के कहने से यह बात तय नहीं हो सकती। हां, संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं है लेकिन हम सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं। हमारी मांगें संवैधानिक हैं। हम उसे लेकर रहेंगे। किसी मुफ्ती के कहने से मेरा मिशन थोड़े कम हो जाएगा।

आपने कई मुस्लिम देशों की यात्रा की है। उनकी तुलना में भारत के मुसलमानों की स्थिति कैसी है ?
मैं खुशनसीब हूं कि मैं भारत में हूं। अन्य मुस्लिम देशों की तुलना में यहां के मुसलमान लाख दर्जे अच्छे हैं। मैंने पाकिस्तान, मलेशिया, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, कतर, ओमान, कुवैत आदि देशों की यात्रा की है। खासकर बिहार में मुसलमान सुकून से रहते हैं।

आप बिहार एथलेटिक्स एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं। खेल के क्षेत्र में बिहार का प्रदर्शन इतनी दयनीय क्यों है ?
2005 के पहले इस संस्था को कोई जानता भी नहीं था। अभी बहुत काम करना है। मैंने सरकार की मदद से छपरा में एक सिंथेटिक मैदान बनाने का संकल्प लिया है, ताकि सारण प्रमंडल में खेल के क्षेत्र में क्रांति आए और हमारे खिलाड़ी देश-विदेश में खेलने जाएं। अब बिहार का खेल बजट दस गुना से ज्यादा हो गया है।

बिहार विधान परिषद् सचिवालय में हुई नियुक्तियों पर कई सालों से अवैध होने का आरोप लगते रहे हैं ?
कोई भी नियुक्ति अवैध नहीं होती है। मामला यह होता है कि जगह 7 लोगों की होती है और बहाल 10 हो जाते हैं, और उनमें से 3 लोगों को काम करने से मना कर देने पर वही 3 लोग तरह-तरह के आरोप लगाने लगते हैं।

जब नियुक्ति अवैध नहीं होती तो 2006 में तत्कालीन सभापति जाबिर हुसेन के कार्यकाल में नियुक्त किए गए दलित-बहुजनों को बर्खास्त कैसे किया गया ?
जब तक मैं सभापति के प्रभार में रहा तब तक मेरे पास ऐसी कोई फाईल नहीं आई। अब मैं उपसभापति के रूप में वहां हूं। इस संबंध में अगर आप वर्तमान सभापति अवधेश नारायण सिंह से ही बात करें तो बेहतर होगा। मेरे पास इस संबंध में कोई जानकारी नहीं है।
                                           (Published in  Forward Press, January 2014 Issue)

Forward Press

Thursday 3 April 2014

इन चुनावों में बहुजन क्या करें ?

-प्रेमकुमार मणि
चुनावी समर की शुरुआत हो चुकी है। भारत की महान जनता सोलहवीं लोकसभा के गठन के लिए तय तारीखों पर अपने वोट डालेगी। हर चुनाव की कुछ न कुछ खासियत होती है। लेकिन यह चुनावजैसा कि अनुमान हैअपने नतीजों को लेकर लंबे अरसे तक जाना जाएगा और उम्मीद यह भी है कि यह भारत की भावी राजनीति का प्रस्थान बिंदु बनेगा। अर्थात् कई दृष्टियों से यह चुनाव ऐतिहासिक महत्व का होगा।
परंपरानुसारहम अपने वोट का दान करते हैं-मतदान। इसका इस्तेमाल हम हथियार या औजार की तरह कुछ गढ़ने या संघर्ष करने के लिए नहीं करते। शायद ऐसा इसलिए भी है कि हमारा समाज और लोकतंत्र आज भी मध्ययुगीन या उससे भी प्राचीन जमाने की मानसिकता में पल-बढ़ रहा है।
लेकिन मेरा आग्रह होगा भारत की जनता अपने वोट का इस्तेमाल हथियार और औजार की तरह करे। खासकर उस जनता को तो मैं सीधे-सीधे संबोधित करना चाहूंगाजो भारत का शोषितउत्पीड़ित समुदाय है,जिसे बुद्ध ने बहुजन और फुले ने बलिजन कहा थाक्योंकि सुशासन की सबसे ज्यादा दरकार उन्हें ही है। तमाम सरकारों और  पूरी व्यवस्था ने उनका केवल शोषण-दोहन किया। लोकतांत्रिक सभ्यता और आर्थिक विकास का पूरा ढांचाउनके कंधों पर टिका हुआ हैलेकिन दुर्भाग्य से वह उस सभ्यता और व्यवस्था के हिस्सा नहीं बन सके हैं। वह 'अन्यÓ  बने हुए हैं।
मित्रोपिछले दो दशकों से अधिक से न केवल वैचारिक या बौद्धिक स्तर परअपितु व्यावहारिक स्तर पर भी मैंने दलगत राजनीतिक प्रक्रियाओं को उसके भीतर शामिल होकर देखा-समझा है और सब मिलाकर यही कह सकता हूं कि बहुजन तबके को नए सिरे से सोचने-विचारने की जरूरत है। हकीकत यही है कि भारत के श्रमिककिसान और दस्तकारजिनमें से अधिकांश दलितओबीसी व आदिवासी हैं या तो राजनीति के हाशिए पर जा चुके हैंया फिर उसके एजेंडे से उतर चुके हैं। उनके नेताओं ने उनके साथ धोखा किया हैफरेब किया है और इन सबका चेहरा उन ताकतों से ज्यादा कुत्सित हैजो हमारे वर्गशत्रु हैं। शायद बहुत विस्तार से बात करने की गुंजाइश नहीं है इसलिए मैं संक्षेप में अपनी बात रखना चाहूंगा। मैं आपका ध्यान सीधे-सीधे मुल्क की मौजूदा राजनीतिक स्थितियों की ओर खींचना चाहूंगा।

वर्तमान स्थिति
पिछले दस सालों से राज कर रही यूपीए सरकारउसके मुखिया मनमोहन सिंह और उनकी पार्टी कांग्रेस ने चुनाव के पूर्व ही मानो पराजय स्वीकार कर ली है। उनके कार्यकलाप और बोली-बानी यही संकेत देते हैं। दूसरी तरफभाजपा और उसके नेता नरेंद्र मोदी लगातार आक्रामक हुए जा रहे हैं। चुनावी सर्वेक्षणों और मीडिया ने मिल-जुलकर उनको बहुत आगे कर दिया है और इसके परिणामस्वरुप अश्वमेध पर निकले नरेंद्र मोदी की धज से चुनाव के पूर्व ही शासकीय दंभ टपकने लगा है। कुछ प्रांतीय पार्टियों और बचे-खुचे वामदलों ने तीसरे फ्रंट की एक कमजोर कवायद भी शुरू की हैजो सतमासे बच्चे की तरह पॉलिटिकल क्लिनिक के इनक्यूबेटर में येन-केन सांसें गिन रहा है। मैं नहीं समझता भारत की जनता इस फ्रंट को गंभीरता से ले रही है। यह अपने ही प्रांतों में घुट रहे राजनेताओं का एक अखिल भारतीय संगठन जैसा है। 1940 के दशक में भारतीय रजवाड़ी ताकतों (देशी रियासतों) ने ऐसा ही एक संगठन बनाया था। दरअसल,तथाकथित तीसरा मोर्चा सकारात्मक से ज्यादा नकारात्मक तत्वों पर टिका हुआ है। उसका एक हिस्सा जो स्वयं को लेफ्ट कहता है (जिसमें मुलायम सिंह भी अपने को शामिल मानते हैं) भाजपा के तो विरुद्ध हैं,लेकिन कांग्रेस की केवल कुछ नीतियों से ही उनकी असहमति है। दूसरा हिस्साजिसमें शरद यादव व नीतीश कुमार जैसे लोग हैंभाजपा के नहीं नरेंद्र मोदी के खिलाफ हैंउनका भी कांगेस से आंशिक ही विरोध है। तो सब मिलाकर तीसरा मोर्चा एंटी-भाजपा कम एंटी-नरेंद्र मोदी ज्यादा है और यही उसकी एकता का आधार है।  
यूपीए की वैचारिकी में भी भाजपा और नरेंद्र मोदी का विरोध ही केंद्रीय तत्व है। अन्यथा कांग्रेसउसके सहयोगी दलों और भाजपा की आर्थिक-सामाजिक नीतियों में कोई अंतर नहीं है। धर्मनिरपेक्षता तो एक नकाब है जिससे अपने कुत्सित चेहरे को इन लोगों ने छुपा रखा है। आप जरा कल्पना करके देखिए कि यदि इस देश में मुसलमानों की संख्या पंद्रह करोड़ की बजाय ईसाईयों या सिखों के बराबर होती तो थर्ड फ्रंट या यूपीए की वैचारिकी का क्या होता। मोहम्मद अली जिन्ना गलत नहीं कहते थे कि भारत का सेकुलर स्वरूप वहां के मुसलमानों की अच्छी-खासी मौजूदगी के कारण होगा। इसी आधार पर वे पाकिस्तान में भी हिंदुओं की अच्छी-खासी मौजूदगी चाहते थे ताकि पाकिस्तान का भी सेकुलर राजनीतिक ढांचा बना रहे। दुर्भाग्यपूर्ण यह था कि इतने समझदार जिन्ना साहब को तब पाकिस्तान का फितूर ही क्यों दिमाग में आया था। यदि खंडित भारत के मुसलमान मोदी जैसे सांप्रदायिक सोच वालों के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं तो संयुक्त भारत के मुसलमान मोदी जैसों की राजनीति असंभव कर सकते थे। तब भारत के राजनेता सांप्रदायिकता से ऊपर उठकर विमर्श करने के लिए मजबूर रहते।
लेकिन आज तो नरेंद्र मोदी की ताकत बढ़ रही है। इसके विपरीत कांग्रेस और उनके अन्य विरोधी लगातार कमजोर होते दिख रहे हैं। इसके कारणों पर विमर्श किया गया तो तथाकथित सेकुलर ताकतें मुंह दिखाने लायक नहीं रहेंगी।

धर्मनिरपेक्षता के संकट की जड़
आजादी के बाद से मुसलमानों की इतनी बड़ी आबादी को अल्पसंख्यक बता-बताकर उनमें असुरक्षा के भाव पैदा किए गए और उनका लगातार शोषण किया गया। एक साजिश के तहत सांस्कृतिक संपोषण की आड़ में उन्हें मजहबी शिक्षा और संस्कारों से बांधे रखा गया। नतीजतन वे विकास की दौड़ में पिछड़ गए। ऐसा कुलीन (अशरफ) मुसलमानों की देखरेख में हुआजिनके बच्चे पब्लिक स्कूलों में पढ़ते हैं और अंग्रेजी छांटते हैं।  पिछड़े (पसमांदा) मुसलमानों के बच्चों को वैसे ही मदरसों के भरोसे छोड़ा गया जैसे हिंदू दलितपिछड़े बच्चों को बदतर सरकारी स्कूलों के भरोसे। ऐसा क्यों हुआ ऐसा करने से आमपिछड़े मुसलमानों को मध्ययुगीन बनाए रखना आसान हुआ और इसी सेाच के आधार पर अशराफ (ऊंची जाति) मुसलमानों का वर्चस्व उन पर बना रह सकता था। यह काम भारत की सेकुलर ताकतों ने बखूबी किया।
इसलिए बहुजन तबके से मेरा आग्रह होगा कि सेकुलरिज्म के ब्राह्मणवादी अथवा कुलीन पाठ के मुकाबले एक बहुजन पाठ विकसित करें। कबीर और फुले की तरह। कांग्रेस और तथाकथित थर्ड फ्रंट का सेकुलर पाठ न केवल दकियानूसी बल्कि खतरनाक भी है। बहुजन ताकतों को इसे खारिज करना चाहिए।

किस तरह के ओबीसी हैं मोदी ?
लेकिन हम नरेंद्र मोदी का क्या करें। कोई दो साल पहले मैंने बताया था कि भाजपा अब ओबीसी कार्ड खेल सकती है। मैंने यह भी बताया था कि इसमें भाजपा को आशातीत सफलता मिलेगी। तब हमारे मित्रों ने मेरा मजाक बनाया था। आज उनको सब कुछ दिख रहा होगा। भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह जोर-शोर से अपने प्रधानमंत्री उम्मीदवार को पिछड़ा,चायवाले का बेटा बता रहे हैं। नरेंद्र मोदी कभी गर्व से अपने को हिंदू कहते थेआज छाती पीट-पीट कर स्वयं को पिछड़ा कह रहे हैं। भाजपा और नरेंद्र मोदी मंडल दौर में क्या कर रहे थे आप इनसे पूछिए तो जरा कि नरेंद्र मोदी जीजब हम लाठियां और गोलियां खा रहे थेतब तो आप हमारे विरोध में निकले आडवाणी की सोमनाथ यात्रा का मार्ग प्रशस्त कर रहे थेउनकी आरती उतार रहे थेअपने को हिंदू बता रहे थे। आज वे हिंदू से पिछड़ा में कैसे रुपांतरित हो गए ?
कई लोगों ने मुझसे पूछा कि नरेंद्र मोदी की ताकत का राज क्या है एक अदना आदमी भी बता सकता है कि मोदीआडवाणीराजनाथ सिंह,जोशीसुषमा और जेटली जैसे नेताओं से अलग हैं तो केवल इसलिए कि वे पिछड़े वर्ग के हैं। यही उनकी ताकत है। लेकिन पाखंड भी यही है। मैंने पहले ही बताया है कि मनु स्वयं तो ब्राह्मण नहीं थालेकिन उसने ब्राह्मणवाद की संहिता तैयार की। जब भी ब्राह्मणों के हाथ से सत्ताधिकार छिटकने लगता हैतब वह अपने हितों की सुरक्षा के लिए उन शक्तियों का पृष्ठपोषण करता है जो उनके हितों की सुरक्षा कर सके। क्षत्रिय मनु ने एक समय यह काम किया थाआज एक शूद्र और कानून की भाषा में ओबीसी नरेंद्र मोदी यह काम करेंगे लेकिन वह भारतीय राजनीति की बहुजन पटकथा का निर्देशन नहीं करेंगेउसके ब्राह्मणवादी पाठ का करेंगे। इस पटकथा को नागपुर पीठ में तैयार किया गया हैआम्बेडकर की दीक्षाभूमि में नहीं बल्कि आरएसएस के मुख्यालय में। रामविलास पासवानरामदास अठावले और उदित राज जैसी कठपुतलियां वहां डांस करेंगी। अन्य ओबीसी नेता भी करतब दिखाएंगे और इसी डांस पर रीझ कर आप अपनी आत्मा उड़ेल देंगे।
आप अपना वोट ब्राह्मणवाद के नए पिछड़ावतार नरेंद्र मोदी की मायावी झोली में डाल देंगेजो स्वयं जादूगरों सा धज बनाए पूरे देश में घूम-घूम कर अपने पिछड़ा होने का  उद्घोष कर रहे हैं। इस बार बलिराजा नहीं,उनका बहुजन समाज ही ब्राह्मणवाद की जादुई डोरियों में बांधा जाएगा।
नरेंद्र मोदी के उभार का अंदाज हिटलर की तरह का ही है। वह भी जनतंत्र की सीढिय़ों पर चढ़कर ही आया था। उसने भी अपनी गरीबी और मोची परिवार में जन्म की बात को खूब उछाला था। कभी लालू प्रसाद अपनी मां के दही बेचने की बात उछालते थेआज नरेंद्र मोदी अपने पिता के चाय बेचने की बात उछाल रहे हैं। लेकिन हिटलर ने सत्ता में आकर समता के आदर्श को नहींउस नित्शेवाद को पकड़ा जो सामाजिक न्याय की जगह सामाजिक वर्चस्ववाद की वकालत करता है। इसी वर्चस्ववाद का भारतीय संस्करण ब्राह्मणवाद है। अब एक शूद्र मोदी इस वर्चस्ववाद का गुजराती पाठ पूरे देश में लागू करेंगे। विकास की राजनीति इसी की अनुमति देती है प्रिय बहुजन मतदाताओं।
तो मेरे प्यारे बहुजन साथियोआप क्या करेंगे मैं आपकी पीड़ा समझता हूं। आप यही कहना चाहेंगे कि हम तो इन मुलायम सिंहोंलालू प्रसादों,मायावतियों और नीतीश कुमारों से भी वैसे ही तबाह हैं। आप की बात बिल्कुल सही है। इन सबको आप धर्मनिरपेक्ष या सेकुलर ताकतें मान रहे थे लेकिन ये सब के सब धर्महीन अथवा अधम ताकते हैं। याद रखिए,धर्मनिरपेक्ष और अधम ताकतें अलग-अलग होती हैं। झूठफरेबघोटाले और कुनबावाद की अनैतिकता में आपादमस्तक डूबे ये लोग बहुजन राजनीति के नायक नहीं बन सकते। इनकी वैचारिक जड़ें फुले-आम्बेडकरवाद में नहींगांधी-सावरकरवाद और अब तो उससे भी बढ़कर स्वार्थवाद में धंसी हैं। ये सब प्रच्छन्न ब्राह्मणवादी हैं और गहरे अनैतिक भी। इनकी कारगुजारियों के कारण ही भाजपा का लगातार विस्तार हो रहा है। इन सबका अतीत चाहे जैसा हो वर्तमान इतना गलीज है कि नरेंद्र मोदी इनके मुकाबले धवल दिखता है। यह भी सच है कि एक बार यदि नरेंद्र मोदी का उभार हो गया तब सामाजिक न्याय और सेकुलरवाद का साइनबोर्ड लगाए इन सारे नालायक ओबीसी दलित नेताओं की खटिया हमेशा-हमेशा के लिए खड़ी हो जाएगी। इनका अंत हृदयविदारक होगा। इनमें से ज्यादातर का अंत तो जेल की काल-कोठरियों में होगा।
तब ऐसे में हम क्या करें हमारा आग्रह होगा कि पूरे राजनीतिक परिदृश्य का बारीकी से अध्ययन करें। किसी भी स्थिति में भ्रष्टअनैतिक और लंपट उम्मीदवारों को अपना समर्थन नहीं दें। वोट में हिस्सा जरूर लें लेकिन उसका इस्तेमाल ऐसे करें जिससे संसदीय राजनीति में विमर्श की गुंजाइश बनी रहे और उसके लोकतांत्रिक आवेग कमजोर न हों।

(प्रेमकुमार मणि हिंदी के प्रतिनिधि लेखक, चिंतक व सामाजिक न्‍याय के पक्षधर राजनीतिकर्मी हैं। इन दिनों वे राष्‍ट्रीय जनता दल के उपाध्‍यक्ष हैं। उनका उपरोक्‍त लेख फारवर्ड प्रेस के (चुनाव विशेषांकअप्रैल, 2014 में प्रकाशित हुआ है।)
                                            (Published in  Forward Press, April 2014 Issue)
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