Monday 21 July 2014

फॉरवर्ड प्रेस के पांच वर्ष पूर्ण ।

फॉरवर्ड प्रेस के पांच वर्ष पूर्ण होने पर न भोले  जाने वाले पल ।
ऑयवन कोस्‍का  जी द्वारा बलिजन पर वार्ता सुनते हुए अन्‍य फॉरवर्ड प्रेस के संवाददाता

फॉरवर्ड प्रेस पत्रिका के संवाददाता संतोष,अनुरागभास्‍कर और अमलेश प्रसाद  ध्‍यान पुर्वक प्रोयगयशाला की वार्ता सुनते हुए

ऑयवन कोस्‍का  जी की अग्रेजी वार्ता को हिन्‍दी में अनुवाद करते हुए वाराणसी के संवाददाता अशोकानंद जी

चेयर परसन-डॉ सि‍ल्विया फार्नांडीस,और प्रबंध संपादक- प्रमोद रंजन  मुख्‍य संपादक-ऑयवन कोस्‍का  जी को सुनते हुए

टॉम वोल्‍फ को सुनते हुए फॉरवर्ड प्रेस संवाददाता उपेन्‍द्र कश्‍यप जी

अंग्रेजी का हिन्‍दी में अनुवाद करते हुए अशोकानंद जी

केविन ब्रिंकमैन भारतीय  संविधान के बारे में सभी संवाददाताओं को बताते हुए

केविन ब्रिंकमैन भारतीय  संविधान के बारे में सभी संवाददाताओं को बताते हुए


फ्रीलांस प‍त्रकारिता के बारे में बताते हुये मोहल्‍ला लाईव के संचालक अविनाश दास जी

मोहल्‍ला लाईव के संचालक अविनाश दास फ्रीलांसिंग पर फॉरवर्ड प्रेस के संवादाताओं की रॉय लेते हुए

फॉरवर्ड प्रेस के संवादाता कार्यक्रम का मजा लेते हुए और अपनी टिप्‍पणीयां देते हुए

Forward Press.

Monday 21 April 2014

आंखों के सामने हुआ नामकरण

हरेराम सिंह
हिंदी साहित्य जगत में पिछले कुछ समय से ओबीसी साहित्य की चर्चा आरंभ हुई है। इसे लेकर अनेक मत सामने आ रहे हैं। इस अवधारणा के विरोधियों का कुतर्क है कि 'ओबीसी साहित्य' की अपनी कोई सैद्धांतिकी नहीं है, जबकि अनेक विद्वानों ने सुचिंतित तर्कों द्वारा यह साबित किया है कि ओबीसी साहित्य की अवधारणा का जन्म अनायास नहीं हुआ है, इसके पीछे कबीर, मखली गोसाल, जोतिबा फू ले आदि अनेक असाधारण चिंतकों का वैचारिक बल है।
और इस तरह हम देखते हैं कि हिंदी में ओबीसी साहित्य और बहुजन साहित्य की कोटि प्रस्तुत करनेवाली पहली पत्रिका 'फारवर्ड प्रेस' बनी।

पत्रिका की 'बहुजन साहित्य वार्षिकी 2013' में प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन ने लिखा है कि 'बहुजन साहित्य' की अवधारणा का जन्म 'फारवर्ड प्रेस' के संपादकीय विभाग में हुआ तथा इसका श्रेय हमारे मुख्य संपादक आयवन कोस्का, आलोचक व भाषाविज्ञानी राजेन्द्र प्रसाद सिंह तथा लेखक प्रेमकुमार मणि को है और आयवन कोस्का ने 'बहुजन साहित्य वार्षिकी 2012' में इसकी पुष्टि भी की है। अपने संपादकीय में उन्होंने लिखा है कि 'पिछले साल जुलाई में प्रोफेसर राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने 'ओबीसी साहित्य' पर अपने आलेख के द्वारा इस विमर्श की शुरु आत की थी। दरअसल यह आलेख 'ओबीसी साहित्य की अवधारणा'है जो 'फारवर्ड प्रेस' के जुलाई, 2011 अंक में प्रकाशित है। मराठी में ओबीसी साहित्य का जन्म पहले हो चुका था।' आयवन कोस्का ने 'फ ारवर्ड प्रेसÓ के जुलाई, 2011 के संपादकीय में लिखा है कि फ रवरी, 2008 में मुझे नासिक में दूसरे अखिल भारतीय ओबीसी साहित्य सम्मेलन में वक्तव्य देने के लिए निमंत्रित किया गया था और उस दौरान मुझे यह अहसास हुआ कि उस मराठी जमावड़े में शायद ही किसी को मालूम था कि 'ओबीसी साहित्य' किस बला का नाम था, है या होना चाहिए,मराठी में भी।....... बिहार के प्रोफेसर राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने ओबीसी साहित्य पर एक संजीदा लेख लिखा है। ओबीसी साहित्य विषय पर गंभीर चर्चा एवं बहस की शुरुआत करने हेतु 'फारवर्ड प्रेस' यह आलेख प्रस्तुत करते हुए फ ख्र महसूस करती है। 'मोहल्ला लाइव' ने प्रस्तुत लेख को 'ओबीसी साहित्य का मैनिफेस्टो'ट कहते हुए इस पर बहस चलाई।

'फारवर्ड प्रेस' के सिंतबर, 2011 अंक में ललन प्रसाद सिंह ने 'ओबीसी साहित्य : माक्र्सवादी परिप्रेक्ष्य' शीर्षक आलेख लिखा। इसमें उन्होंने बताया कि न्याय के लिए संघर्ष तो ओबीसी की नियति है। उसी संघर्षशील सांस्कृतिक चेतना की सृजनात्मक तथा आलोचनात्मक अभिव्यक्ति ओबीसी साहित्य में होती है। इसी अंक में आयवन कोस्का, प्रमोद रंजन, राजेन्द्र यादव एवं संजीव का ओबीसी साहित्य पर आपसी विमर्श छपा है। इस विमर्श में राजेन्द्र यादव ने कहा कि ओबीसी साहित्य नामक जैसी कोई चीज नहीं है। परंतु संजीव ने माना कि विमर्श शुरू होना चाहिए।

'फारवर्ड प्रेस' के नवंबर, 2011 अंक में ओबीसी साहित्य पर दो आलेख आए। एक कंवल भारती का और दूसरा प्रेमकुमार मणि का। प्रेमकुमार मणि ने स्वीकारा है कि आज जो ओबीसी साहित्य की बात उठ रही है उसके पीछे दलित साहित्य की संकीर्णतावादी सोच है। इसे मिल-बैठकर, विमर्श कर दूर करना ही श्रेयस्कर है। कंवल भारती ने लिखा है कि सिद्धांत और व्यवहार पक्ष में दलित और ओबीसी धारा समान हैं-दोनों का ही लक्ष्य जातिविहीन समाज की स्थापना करना है। इसलिए दलित साहित्य ओबीसी साहित्य का स्वागत करेगा।
'बहुजन साहित्य वार्षिकीÓ 2012 में राजेन्द्र प्रसाद सिंह ने बहुजन साहित्य को परिभाषित करते हुए लिखा कि वस्तुत: बहुजन साहित्य एक व्यापक अवधारणा है जैसे भक्ति काव्य। भक्ति काव्य में जैसे संत, सुफी, राम और कृष्ण काव्यधाराओं का समाहार है, वैसे ही बहुजन साहित्य में भी ओबीसी, दलित, आदिवासी और एक सीमा तक स्त्री विमर्श की साहित्य धाराओं का समाहार है। प्रमोद रंजन ने 'बहुजन साहित्य वार्षिकीÓ 2013 में दूसरे शब्दों में स्पष्ट किया कि 'बहुजन साहित्य को उस बड़ी छतरी की तरह देखा जाना चाहिए जिसके अंतर्गत दलित साहित्य के अतिरिक्त शूद्र साहित्य, आदिवासी साहित्य तथा स्त्री साहित्य आच्छादित है। आंबेडकरवादी साहित्य, ओबीसी साहित्य आदि जैसी अनेक शब्दावालियों, विचार, दृष्टिकोण इसके आंतरिक विमर्श में समाहित है।'
'फारवर्ड प्रेस' के फरवरी, 2012 अंक में अभय कुमार दुबे ने यह विचार रखा कि पिछड़े वर्ग का अपना कोई अलग साहित्य नहीं है, न ही उनके पास अपनी विशिष्ट सांस्कृतिक अभिव्यक्तियां है। राजेन्द्र प्रसाद सिंह के दो आलेख अगस्त, 2012 एवं सितंम्बर, 2012 के फारवर्ड प्रेस में प्रकाशित हुए-ओबीसी नवजागरण का प्रथम चरण तथा ओबीसी नवजागरण का दूसरा चरण। इन लेखों में स्पष्ट किया गया कि भारतीय इतिहास में कई चरणों एवं कई रूपों में ओबीसी नवजागरण उपलब्ध है। अगस्त, 2012 के 'फारवर्ड प्रेस' में बजरंग बिहारी तिवारी ने स्वीकार किया कि राजेन्द्र प्रसाद सिंह 'ओबीसी साहित्य' के मान्य सिंद्धातकार हैं और उनका स्थान ओबीसी साहित्य में वही है जो दलित साहित्य में डॉ. धर्मवीर का है। 'बहुजन साहित्य वार्षिकी 2012' में वीरेंद्र यादव ने लिखा कि जब साहित्य की मुख्यधारा बहुजन समाज के सरोकारों से जुडऩे का जतन कर रही हो, तब 'ओबीसी साहित्य' की किसी भी अवधारणा की न तो कोई आवश्यकता है और न कोई औचित्य। परंतु इतना तो तय है कि बहुजन समाज के सरोकारों की ही एक धारा ओबीसी साहित्य है।
जयप्रकाश कर्दम ने 'दलित साहित्य 2012' की वार्षिकी में ओबीसी साहित्य पर संपादकीय लिखते हुए अपना मत दिया है कि गत् वर्ष के दौरान हिंदी साहित्य में जो भी बहस चली है, उसमें सर्वाधिक उल्लेखनीय राजेन्द्र प्रसाद सिंह द्वारा ओबीसी साहित्य को लेकर शुरू की गई बहस है.......यदि ओबीसी लेखक पृथक ओबीसी साहित्य की स्थापना करना चाहते हैं तो यह आपत्तिजनक नहीं है। महत्वपूर्ण है उनका ब्राह्मणवादी-सामंतवादी साहित्य और साहित्यकारों के प्रभाव और छाया से बाहर निकलना। जाहिर है कि कंवल भारती और जयप्रकाश कर्दम जैसे दलित सरोकारों के विचारकों ने ओबीसी साहित्य को कुछेक शर्तों के साथ मान्यता दी है। जबकि ओमप्रकाश वाल्मीकि ने इसका विरोध किया है। उनका मानना है कि आज भी ओबीसी में जन्मा रचनाकार अपने को ओबीसी कहलाने में अपमान समझता है। जबकि दलित सरोकारों के रचनाकार अपने को दलित लेखक कहने में गर्व महसूस करते हैं।
हिंदी के प्रखर आलोचक तथा 'फारवर्ड प्रेस' के प्रबंध संपादक प्रमोद रंजन ने ओबीसी साहित्य/बहुजन साहित्य पर कई विचारोतेजक लेख लिखे हैं। उनका एक महत्वपूर्ण लेख 'आज के तुलसीगण' है। रमणिका गुप्ता ने माना है कि दलित साहित्य प्रचुर मात्रा में आ चुका है। पिछड़ा साहित्य इसमें इजाफा ही करेगा। वे तो अपनी पत्रिका 'युद्धरत आम आदमी'का ओबीसी विशेषांक प्रकाशित करने की तैयारी में हैं। इधर 24-25 मई, 2013 को हरिनारायण ठाकुर ने बारा चकिया; बिहार में यूजीसी प्रायोजित एक राष्ट्रीय संगोष्ठी करवाई। इसमें ओबीसी साहित्य पर भी गंभीर विमर्श हुआ। कहना न होगा कि ओबीसी साहित्य अब स्थापित हो चुका है। इसे उखाड़ फेंकना आसान नहीं होगा।
-'फारवर्ड प्रेस साहित्य एवं पत्रकारिता सम्मान : 2013' से सम्मानित हरेराम सिंह कवि और आलोचक हैं। यह पुरस्कार फारवर्ड प्रेस पाठक क्लब, सासाराम की ओर से फारवर्ड प्रेस में प्रकाशित बहुजन लेखक/पत्रकार की श्रेष्ठ लेख/रिपोर्ट के लिए दिया जाता है
                                                                (Published in  Forward Press, January 2014 Issue)

Forward Press.

'मैं मुलाना,मुफ़्ती चक्‍कर में नहीं रहता'

बाबा साहब भीमराव आम्बेडकर ने कभी कहा था कि 'हिन्दू दलितों से मुसलमान दलितों की स्थिति बदतर है।'वह परिस्थिति आज भी लगभग जस की जस बनी हुई है। पसमांदा मुसलमानों ने अपनी आवाज बुलंद करने के लिए 1998 में 'ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज' का गठन किया था। बिहार विधान परिषद् के उपसभापति सलीम परवेज इस संगठन के अध्यक्ष रहे हैं। पसमांदा समाज के बाबत उनसे अनेक पहलुओं पर बातचीत की है फारवर्ड प्रेस के छपरा संवाददाता अमलेश प्रसाद ने। बातचीत के अंश प्रस्तुत हैं...

पसमांदा समाज से निकलकर बिहार विधान परिषद् के उपसभापति पद तक का सफर कैसा रहा ? 
मेरा संयुक्त परिवार था, जो बढ़ती पर ही टूट गया और मुझे सऊदी अरब जाना पड़ा। छह साल तक एक कंपनी में काम किया। वहीं 1990 में अपना कारोबार शुरू किया लेकिन हमेशा अपने गांव की गरीबी, बदहाली याद आती रही। 2000 में अपने गांव वापस आया। 'सर्विस टू यूनिटी, सर्विस टू गॉड' को अपनी जिंदगी का उद्देश्य बना लिया। अरब से जो पैसा मिला, उसे पसमांदा समाज के लोगों की शादी, बच्चों की पढ़ाई में लगाया। 2009 में हालात कुछ ऐसे आ गए कि मुझे बसपा से छपरा लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लडऩा पड़ा। चुनाव हार गया, लेकिन हिम्मत नहीं हारी। इसी बीच नीतीश जी का निमंत्रण मिला और मैं विधान पार्षद् बन गया। 2010 में बिहार विधान सभा के चुनाव मैं मैंने नीतीश जी को पूरी मदद की, जिसके पुरस्कारस्वरूप मुझे बिहार विधान परिषद् के उपसभापति का पद मिला। हिन्दुस्तान में मैं अंसारी परिवार का पहला व्यक्ति हूं जिसे यह पद मिला है।    

समाज सेवा/व्यवसाय के क्षेत्र से राजनीति में क्यों आए ?
जब मैं पढता था तब मेरे बड़े जीजा डॉ. शार्दूल हक ने मेरा नामांकन दाता मेडिकल कॉलेज में करवा दिया था, लेकिन मेरे पास पढऩे के लिए पैसे नहीं थे और मुझे सऊदी अरब जाना पड़ा। मैंने बहुत नजदीक से गरीबी देखी है। जब मेरी आर्थिक स्थिति ठीक हुई, मेरी अंतरात्मा ने आवाज दी-'गांव चलो और बदहाल लोगों की सेवा करो।'आज भी मैं अपने को एक समाजसेवी ही समझता हूं, न कि विधान पार्षद् और न ही उपसभापति।

पसमांदा समाज के खस्ताहाल के लिए किसको जिम्मेदार मानते हैं ?
खस्ताहाल के लिए हम खुद जिम्मेदार हैं। हमें हर तरह से शिक्षित नहीं करने की साजिश की गई। मैंने ऑल इंडिया पसमांदा मुस्लिम महाज को एक गाड़ी दी है, जिस पर लिखा है 'आधी रोटी खाएंगे, बच्चों को पढ़ाएंगे।'हमारे बीच तालीम की कमी है। हमें खानों-खानों में बांटा गया। जाति के नाम पर, धर्म के नाम पर डराया गया, लेकिन इस सरकार की देन है कि लोग अब अपने बच्चों को पढ़ाना चाहते हैं। तालीम से ही हालात सुधरेंगे।
 
पसमांदा समाज के लिए नीतीश सरकार ने क्या योजनाएं लागू की हैं ? 
हम पसमांदा लोग ही नहीं, बल्कि पूरे बिहारवासी खुशनसीब हैं कि आजादी के बाद पहली बार नीतीश कुमार जैसा मुख्यमंत्री मिला है। सबसे बड़ी बात तो यह है कि उन्होंने बच्चों में आत्मनिर्भरता पैदा की है। दसवीं पास बच्चियों के लिए नीतीश जी ने दस हजार वजीफा देने की घोषणा की है। इससे स्कूलों में बच्चों की संख्या बढ़ी है। 2,459 मदरसों को मंजूरी मिली है। अब बच्चों को किताबें, कॉपी व पोशाक और तालीमी मरकज सेवकों का वेतन मिलने लगा है।

नीतीश सरकार में एक भी मंत्री पसमांदा समाज का नहीं है ? यहां तक कि मुसलमानों के सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक व धार्मिक संस्थाओं का अध्यक्ष भी कोई पसमांदा नहीं है ? 
नीतीश जी सोशल इंजीनियरिंग के माहिर आदमी हैं। वो काम चाहते हैं। आजतक किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री ने इतनी इज्जत नहीं दी, जो इज्जत पसमांदा समाज को उन्होंने दी है। मैं पसमांदा समाज का पहला आदमी हूं, जो इस संवैधानिक पद पर बैठा हूं।

कुछ लोग कहते हैं कि आरक्षण इस्लाम के विरुद्ध है। हैदराबाद के एक मुफ्ती का कहना है कि पसमांदा समाज को आरक्षण देना हराम है ? 
मैं कभी मौलाना और मुफ्ती के चक्कर में नहीं रहता। किसी मुफ्ती के कहने से यह बात तय नहीं हो सकती। हां, संविधान में धर्म के आधार पर आरक्षण नहीं है लेकिन हम सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षणिक रूप से पिछड़े हैं। हमारी मांगें संवैधानिक हैं। हम उसे लेकर रहेंगे। किसी मुफ्ती के कहने से मेरा मिशन थोड़े कम हो जाएगा।

आपने कई मुस्लिम देशों की यात्रा की है। उनकी तुलना में भारत के मुसलमानों की स्थिति कैसी है ?
मैं खुशनसीब हूं कि मैं भारत में हूं। अन्य मुस्लिम देशों की तुलना में यहां के मुसलमान लाख दर्जे अच्छे हैं। मैंने पाकिस्तान, मलेशिया, संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन, कतर, ओमान, कुवैत आदि देशों की यात्रा की है। खासकर बिहार में मुसलमान सुकून से रहते हैं।

आप बिहार एथलेटिक्स एसोसिएशन के अध्यक्ष भी हैं। खेल के क्षेत्र में बिहार का प्रदर्शन इतनी दयनीय क्यों है ?
2005 के पहले इस संस्था को कोई जानता भी नहीं था। अभी बहुत काम करना है। मैंने सरकार की मदद से छपरा में एक सिंथेटिक मैदान बनाने का संकल्प लिया है, ताकि सारण प्रमंडल में खेल के क्षेत्र में क्रांति आए और हमारे खिलाड़ी देश-विदेश में खेलने जाएं। अब बिहार का खेल बजट दस गुना से ज्यादा हो गया है।

बिहार विधान परिषद् सचिवालय में हुई नियुक्तियों पर कई सालों से अवैध होने का आरोप लगते रहे हैं ?
कोई भी नियुक्ति अवैध नहीं होती है। मामला यह होता है कि जगह 7 लोगों की होती है और बहाल 10 हो जाते हैं, और उनमें से 3 लोगों को काम करने से मना कर देने पर वही 3 लोग तरह-तरह के आरोप लगाने लगते हैं।

जब नियुक्ति अवैध नहीं होती तो 2006 में तत्कालीन सभापति जाबिर हुसेन के कार्यकाल में नियुक्त किए गए दलित-बहुजनों को बर्खास्त कैसे किया गया ?
जब तक मैं सभापति के प्रभार में रहा तब तक मेरे पास ऐसी कोई फाईल नहीं आई। अब मैं उपसभापति के रूप में वहां हूं। इस संबंध में अगर आप वर्तमान सभापति अवधेश नारायण सिंह से ही बात करें तो बेहतर होगा। मेरे पास इस संबंध में कोई जानकारी नहीं है।
                                           (Published in  Forward Press, January 2014 Issue)

Forward Press