Tuesday, 3 December 2013

दुर्गासप्तशती का असुर पाठ, सांस्कृतिक युद्ध का शंखनाद


अश्विनी कुमार पंकज
म सबने मार्कण्डेय पुराण में वर्णित 'दुर्गासप्तशती' की कथा या तो पढी है या सुनी है या फिर दुर्गा पूजा अथवा नवरात्रि के धार्मिक आयोजन से थोड़े-बहुत जरूर परिचित हैं। हम आपको एक मुण्डा आदिवासी कथा सुनाते हैं। कथा इस प्रकार है : जंगल में एक भैंस और भैंसा को एक नवजात बच्ची मिली। दोनों उसे अपने घर ले आए और लड़की को पाल-पोसकर बड़ा किया। अपूर्व सौंदर्य लिए हुए सोने की काया वाली वह बच्ची जवान हुई। उसकी सोने-सी देह और अनुपम सौंदर्य की चर्चा कुछ शिकारियों के द्वारा राजा तक पहुंची। राजा ने छुपकर लड़की को देखा और उसके रूप पर मोहित हो गया। उसने उसका अपहरण करने की कोशिश की। तभी भैंस और भैंसा दोनों वहां आ गए। दोनों को आया देख राजा ने लड़की को बंधक बना लिया और घर का दरवाजा अंदर से बंद कर लिया। भैंस ने दरवाजा खोलने के लिए लड़की को बाहर से आवाज लगाई। लड़की बंधक थी। वह कैसे दरवाजा खोल पाती ? उसने बिलखते हुए राजा से आग्रह किया कि वह उसे छोड़ दे, पर राजा ने लड़की को मुक्त नहीं किया। अंतत: भैंस और भैंसा, दोनों दरवाजा खोलने की कोशिश करने में सर पटकते-पटकते मर गए। उनके मर जाने के बाद राजा ने बलपूर्वक लड़की को अपनी रानी बना लिया।

आप सोचेंगे कि 'दुर्गासप्तशती' अथवा दुर्गा पूजा की कहानी, जिसमें आदिशक्ति दुर्गा महिषासुर का वध करती है, से इस आदिवासी कथा का क्या लेना-देना। इस पर बात करने से पहले एक और आदिवासी कथा का पाठ कर लेना उचित होगा, जिसे गैर-आदिवासी समाज नहीं जानता। यह कथा संथाल आदिवासी समाज में प्रचलित है। संथालों का एक पर्व है 'दासांय', जो दुर्गापूजा के समानांतर मनाया जाता है। इसमें संथाल नवयुवकों की टोली बनती है, जो योद्धाओं की पोशाक में  रहते हैं। टोली के आगे-आगे अगुआ के रूप में कोई संथाल बुजुर्ग होता है, जो प्रत्येक घर में घुसकर गुप्तचरी का स्वांग करता है। दरअसल, यह टोली प्रत्येक घर में अपने सरदार को खोजती है जो उनसे बिछड़ गया है। इस तरह टोली युद्ध की मुद्रा में नृत्य करते हुए आगे बढती है। इस संथाल आदिवासी परंपरा 'दासांय' में टोली जिस सरदार को खोजती है, उसका नाम दुरगा होता है, जो अपने दिशोम (देश) में दिकुओं (बाहरी लोग) के अत्याचार और प्रभाव के खिलाफ  अपने योद्धाओं के साथ युद्ध करता है। उसके बल और वीरता से दिकू पराजित हो भयभीत रहते हैं। अंत में दिकू लोग छल का सहारा लेते हैं। उसे धोखे से बंदी बनाकर उसकी हत्या करने के लिए एक वेश्या से सहायता मांगते हैं। वेश्या सवाल करती है, 'इसमें मुझे क्या लाभ ? पुजारी वर्ग उसे आश्वस्त करता है कि अगर अपने रूपजाल में फांसकर वह दुरगा को बंदी बनाने में साथ देगी तो युगों-युगों तक उसकी पूजा होगी। इस तरह से संथालों का सरदार 'दुरगा' बंदी होता है और मार डाला जाता है। आदिवासी सरदार दुरगा को मारने के ही कारण उस वेश्या को महिषासुरमर्दिनी और दुरगा (दुर्गा) की उपाधि मिली। उसे मारने में नौ दिन और नौ रातें लगे थे इसीलिए नवरात्रि का चलन शुरू हुआ। इस तरह से दुर्गा पूजा की शुरुआत हुई। बंगाल इसका केंद्र बना, क्योंकि मूलत: संथालों की आबादी पुराने बंग से सटे इलाके अर्थात मानभूम में निवास करती थी। इसी कारण दुर्गा प्रतिमा तभी बनती है जब वेश्यालय की एक मुट्ठी मिट्टी उस मिट्टी में मिलाई जाए, जिससे मूर्ति का निर्माण होना है।
इस दूसरी आदिवासी कथा से आप यह समझ गए होंगे कि पहली कथा, जिसमें जंगल, भैंस और सोने की काया वाली लड़की का रूपक है,  का दुर्गा सप्तशती के साथ क्या संबंध है। दरअसल ये दोनों कथाएं मनुवादी दुर्गा सप्तशती का आदिवासी पाठ हैं, जिसे लोककथा कहकर पुरोहित वर्ग ने व्यापक जनसमाज के सामने आने नहीं दिया। सांस्कृतिक उपनिवेश बनाए रखने के लिए पुरोहित वर्ग और उसकी शिक्षा व्यवस्था ने लोकविश्वास को विश्वसनीय नहीं माना और असहमतियों एवं विरोध के इतिहास को लिखित वेद-पुराणों के तले दबा दिया।
पौराणिक युग में देवियों यानी आदिशक्ति के उभार पर डॉ. आम्बेडकर ने महत्वपूर्ण सवाल उठाया है। उनकी मान्यता है कि वैदिक युग में देव युद्ध करते हैं, जो पुरुष हैं, उनकी पत्नियां युद्ध में नहीं जातीं। लेकिन पौराणिक काल में जब देवों का राज स्थापित हो जाता है और वे ही शासक होते हैं, तब अचानक से हम उनकी देवी पत्नियों को युद्ध में वीरांगना के रूप में पाते हैं। डॉ. आम्बेडकर व्यंग्य करते हुए कहते हैं, 'ब्राह्मणों ने यह भी नहीं सोचा कि वह दुर्गा को ऐसी वीरांगना बनाकर, जो अकेली सभी असुरों का मान-मर्दन कर सके, अपने-अपने देवताओं को भयानक रूप से कायरता का जामा पहना रहे हैं। ऐसा लगता है कि वे पौराणिक देवता अपनी आत्मरक्षा तक नहीं कर सके और उन्हें अपनी पत्नियों से याचना करनी पड़ी कि वे आएं और उन्हें संरक्षण प्रदान करें। मार्कण्डेय पुराण में वर्णित एक घटना (महिषासुर वध) यह प्रकट करने के लिए पर्याप्त है कि ब्राह्मणों ने अपने देवताओं को कितना हिजड़ा बना दिया था। (डॉ. आम्बेडकर, रिडल्स इन हिन्दुज्म पृ. 75)
दुर्गा पूजा के बंगाली विस्तार का एक घृणित इतिहास है। अठारहवीं सदी के पहले, बंगाल में भी दुर्गा पूजा की ऐसी कोई परंपरा नहीं थी, जैसी हम आज पाते हैं। यह जानकर बहुत से हिंदुओं को धक्का लगेगा कि दुर्गा पूजा का पहला आयोजन बंगाल में अंग्रेजी राज के विजयोत्सव के उपलक्ष्य में हुआ था 1757 में। 23 जून 1757 को प्लासी के युद्ध में बंगाल के नवाब को हराकर जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने बंगाल पर अपना राज कायम कर लिया, तो इसकी खुशी में राजा नवकृष्णा देव, जो क्लाइव का मित्र था, ने शोभाबाजार स्थित अपने घर के प्रांगण में दुर्गा पूजा का आयोजन किया। आज भी 36 नबकृष्णा स्ट्रीट में होनेवाली पूजा को बंगाली 'कंपनी पूजाÓ के नाम से ही जानते हैं। इसके बाद ही बंगाल के जमींदारों ने दुर्गा पूजा को अपने 'ठाकुर दालान'
और अपनी-अपनी जमींदारियों में आयोजित करना शुरू किया। दुर्गा पूजा के इस आयोजन में धार्मिक विद्वेष स्पष्टत: मौजूद था और है, इसे भी नहीं भूलना चाहिए। ईस्ट इंडिया कंपनी ने प्लासी के युद्ध में जिस नवाब को हराया था, वह मुसलमान था-नवाब सिराजुद्दौला। ईस्ट इंडिया कंपनी से लडऩेवाला सिराजुद्दौला देशभक्त नहीं है भारतीय इतिहास में, क्योंकि वह मुस्लिम है। लेकिन जिन बंगाली राजाओं और जमींदारों ने ईस्ट इंडिया कंपनी की आराधना की, वे बंगाली पुनर्जागरण के अग्रदूत माने गए। संहार का यह नस्लीय आयोजन हमें बताता है कि हजारों साल पहले असुरों को दुर्गा ने छल से मारा। बंगालियों ने 250 वर्ष पहले मुसलमानों के खिलाफ  और ईस्ट इंडिया कंपनी की आराधना में फिर से दुर्गा को जीवित किया और आजादी के बाद, भारत सरकार व हिंदू समाज ने विकास एवं औद्योगीकरण की आड़ में आदिवासी इलाकों में दुर्गा पूजा का विस्तार किया और आदिवासियों का सांस्कृतिक संहार आज भी जारी रखा है।

कहानीकार व कवि अश्विनी कुमार पंकज पाक्षिक बहुभाषी आदिवासी अखबार 'जोहार दिसुम खबर' तथा रंगमंच प्रदर्शन कलाओं की त्रैमासिक पत्रिका 'रंगवार्ता' के संपादक हैं
                                                                 (Published in  Forward Press,  May, 2013 Issue)

Forward Press.