Monday 24 March 2014

बदलते हालात ने भिखारी बना दिया

बांदा : यूं तो शहर और गांवों को सजाने-संवारने के लिए अनगिनत प्रयास किए जा रहे हैं। लेकिन हैरत तब होती है जब अपने ही शहर के वीआईपी परिक्षेत्र में भूख से टूटती किसी जीवन प्रत्याशा को देखकर। बांदा जनपद की सिविल लाइंस के नुक्कड़ पर रहने वाली इस वृद्ध महिला की जीवनकथा किसी उपन्यास के कथानक से कम नहीं है।

कुसुमकली, जिसकी उम्र 80 वर्ष है। थाना कबरई की निवासी है और जाति से विश्वकर्मा, लोहार है। यह जाति अन्य पिछड़े वर्ग में आती है। 15 वर्ष पूर्व उसका पलायन कबरई से बांदा हुआ था। कभी चलती ट्रेनों में भीख मांगकर गुजारा करने वाली इस निरीह महिला के पीछे अब जवान भतीजों की युवा पीढ़ी है, जिन्हें न तो खून के रिश्तों का एहसास है और ना ही उसके बूढ़े हृदय में पनप रहे दर्द की परवाह। शुरू में अपने भाई किशोरी के सहारे इस महिला ने जीवन को काटने का साहस किया पर बड़े भाई की शादी होते ही घर आई नई-नवेली भाभी के तानों और उत्पीडऩ को बर्दाश्त न कर पाने के बाद यह महिला लगातार 10 वर्षों तक चलती ट्रेनों में भीख मांगकर जिंदगी बसर करने लगी। लेकिन भूख बड़ी हत्यारन होती है। थक-हारकर इसका बांदा आना हुआ। घरों में काम करना और इसके बदले 100-150 रूपये मासिक मिलने के बाद जो कुछ बचता वह उसकी किस्मत का हिस्सा बनता। शहर के इन्दिरा नगर, वन विभाग, बिजली खेड़ा के घरों में बर्तन मांजने वाली कुसुमकली बाई के रूप में जानी जाने लगी।
आशीष सागर बताते हैं कि कभी उसने उनके यहां भी बर्तन मांजने का काम किया था। जब कभी मुहल्ले में शादी-ब्याह होता तो उसकी किस्मत थोड़ी मेहरबान होती। मसलन, बारात का बचा हुआ खाना और परजों को मिलने वाली हल्की धोती से उसका बदन ढक जाता। शरीर जर्जर हो गया और घरों में काम करना बुढ़ापे एवं आंखों की कम होती रोशनी के साथ छूटता चला गया। अभी कुछ दिन पहले ही वो कबरई गई थी। लेकिन अब पीहर में पूछता कौन है। भतीजों ने मार-पीटकर घर से चलता कर दिया। उसके एक दिन बाद जब धर से निकलते हुए इस बदहवास महिला को अपनी टूटी हुई झोपड़ी बनाते देखा तो सहसा कदम आगे नहीं बढ़े। उसने बुझी आंखों से जो कुछ भी दिल का गुबार था कह डाला-बिटवा मोर कौनो निहाय, सब मर गये हैं, कोऊ खांवै का नहीं देत आय। उसकी यह हालत देखकर बरबस ही यह सोचना पड़ता है कि वृद्धावस्था पेंशन आखिर क्यों और किनके लिए बनी है। अब कहीं न कहीं एक मौन प्रश्न रह जाता है समाज में तिरस्कृत हुए उन तमाम बुजुर्गों की ओर से जो गांवों और शहरों के बीच की दूरी नापकर स्वयं के मातृत्व मोह में अपने परिवार से दूर नहीं जाना चाहते लेकिन विषम परिस्थितियां और बदलते हालात उन्हे भिखारी बना देते हैं, उन्हीं लोगों के कारण जिनके लिए उन्होंने सारा जीवन अर्पित कर दिया।
                                                  (Published in  Forward Press, May 2013 Issue)
Forward Press.

No comments:

Post a Comment