Tuesday, 27 August 2013

वासेपुर की कहानी : कौन सुनेगा, कैसे सुनाए?

मेहनतकश युवा बताते हैं वासेपुर की अनकही कहानी
              - नवल किशोर कुमार
झारखंड में धनबाद के निकट बसे असली ‘वासेपुर’ की तासीर  फिल्‍म निर्माता अनुराग कश्यप की फ़िल्म “द गैंग आफ़ वासेपुर” (वन और टू) से बहुत अलग है।  यहां के लोगों की आखों में आज की रोजमर्रा की सामान्‍य चिंताएं और भविष्‍य के सपने हैं, न कि वह हिंसा और दशहत, जिसकी कल्‍पना  वासेपुर फिल्‍म देख चुकने के बाद हमारे मन में होती है। और हर पल जीते-मरते वासेपुर को देखती हैं। वास्तव में, अनुराग ने पर्दे पर सच्चाई दिखाने के नामपर आंचलिक  शब्दों का उपयोग कर हिंसा और सेक्स के जरिए वासेपुर के दर्द को ताजा कर दिया है। खनिज संपदाओं के मामले में समृद्ध होने का दर्द झेल रहे झारखंड प्रदेश के महत्वपूर्ण शहरों में एक प्रमुख शहर है धनबाद। एक कभी न बुझने वाली आग में पल पल जलने वाले धनबाद (धन + बाद)  का नामकरण निस्संदेह इसी कारण हुआ होगा कि इस शहर की धरती के नीचे कोयला का अकूत भंडार है। कुछ और खनिज इसके गर्भ में है, लेकिन मुख्यतः इसकी पहचान कोयले के कारण ही है। इस शहर की इधर-उधर बिखरी समृद्धि अनायास ही दिख जाती है, जब आप इसके करीब पहुंचते हैं। धनबाद शहर की सीमा में अवस्थित है वासेपुर। इसकी सीमा कहां से शुरु होती है, यह कहना मुश्किल है। इसकी वजह यह कि यह धनबाद स्टेशन के पास है। केवल चंद मिनटों की दूरी पर। वैसे आजकल जबसे कश्यप की फ़िल्म ने पूरे देश में डंका बजाया है, धनबाद शहर के इस छोटे से हिस्से की लोकप्रियता इतनी बढ गई है कि यहां जाने के लिए आपको इसे ढूंढने की जरुरत नहीं है। मैं भी जब बस पर सवार होकर धनबाद पहुंचा तब मैं उलझन में था। पता नहीं, यह वासेपुर कितना दूर होगा। वहां टेम्पो जाती है या नहीं? लेकिन जब बस से उतरा तब जानकारी मिली कि आप वासेपुर में खड़े हैं। मेरी आंखें फ़टी की फ़टी रह गईं।

अच्छी सड़कें, देखने योग्य अच्छी इमारतें और शहर की भीड़भाड़ वाला शहर अनुराग कश्यप के वासेपुर से अलग लगा। सुबह-सुबह एक रोड छाप दुकान पर चाय पीने के दौरान मैंने वासेपुर के बारे में जानना चाहा। चाय दुकानदार ने कहा कि यही बगल में वह बस्ती है, जिसे वासेपुर कहा जाता है। मुसलमानों की बस्ती है। जब मैंने बताया कि मैं दिल्ली से आया हूं तब उसने हंसते हुए कहा कि आप भी देख लिजीए हमारे वासेपुर की गुंडई।

मेरे कदम आगे बढते जा रहे थे। मैं आते-जाते लोगों को देखता और उनमें कश्यप की फ़िल्म में दिखने वाले चेहरों को खोजने की कोशिश करता। आगे बढने पर कुछ लोग मिले, जिनके पहनावे ने मुझे अहसास करा दिया कि वाकई मैं वासेपुर में हूं। नूरी मस्जिद के पास पहूंचा तब दिल को तसल्ली देने के लिए मैंने एक शख्स से पूछा। जवाब सकारात्मक था। रमजान का पवित्र महीना होने के कारण नूरी मस्जिद का नूर अधिक आकर्षक दिख रहा था।

आगे बढा तो कुछ बुजुर्गों से बातचीत हुई। वह एक लोहे के ग्रिल बनाने की दुकान थी। लोग वही बैठे थे। मैंने अपना परिचय दिया तब बातचीत शुरु हुई। उनकी जुबानी वासेपुर की असली कहानी यह है कि इस पूरे इलाके में अभी भी फ़हीम खान की बादशाहत बरकरार है। संभवतः इसी फ़हीम खान के कैरेक्टर को पर्दे पर जिया है नवोदित कलाकार फ़ैजल खान के रुप में नवाजुद्दीन सिद्दीकी ने। फ़हीम के पिता शफ़ी खान की बादशाहत के किस्से आज भी मशहूर हैं। करीब 80 वर्ष के बुजुर्ग राशिद खान ने बताया कि वासेपुर का संबंध बादशाह मीर कासिम से जुड़ा है, जिसने जंग के मैदान में अपने दुश्मनों के दांत खट्टे कर दिये थे। उस समय वह इसी वासेपुर में ठहरा था। संभवतः उसके यहां रहने के कारण ही इस जगह का नाम वासेपुर पड़ा था।

फ़हीम खान और उसकी बादशाहत के बारे में बताने में किसी को कोई परहेज नहीं है। बुजुर्ग राशिद ने बताया कि फ़हीम के पिता शफ़ी खान की छवि गरीबों में राबिन हुड वाली हुआ करती थी। पहले वह भी एक खदान में मजदूरी किया करता था। एक बार मजदूरी को लेकर कुछ कहा-सुनी हो गई तो कंपनी के आदमी को उठाकर पटकने के बाद छाती पर चढ बैठा। फ़िर मजदूर शफ़ी खान  दबंग शफ़ी खान बन गया। कंपनी वाले उसे बैठाकर पैसा देते थे और वह तरह-तरह के काम करता। उसने रंगदारी वसूलना शुरु किया। एक से एक रायफ़लें रखना उसकी शौक में शुमार हो गया था। फ़हीम खान उस समय कम उम्र का था जब उसके बाप को किसी ने गोली मार दी थी। लोगों का कहना है कि उसने अपने पिता के हत्यारों को उनके किए की सजा दी और फ़िर खुद डॉन बन बैठा।

वासेपुर की खुली और विस्तृत गलियों से गुजरते हुए मैं उस इलाके में पहुंचा जहां आज के खदान मजदूर रहते हैं। एक पीपल के पेड़ के नीचे। परिचय देने पर जुगेश्वर शर्मा ने बताया कि वह मूलतः छपरा के रहने वाले हैं। करीब 30 वर्षों से यहां नौकरी कर रहे हैं। फ़हीम खान और देशी-विदेशी हथियारों के जखीरे के बारे में उन्हें जानकारी नहीं है, लेकिन उसका  रईसी ठाठ-बाट अवश्य ही किसी फ़िल्मी कहानी के जैसे लगते हैं। उनका कहना है कि खदान कंपनियों और स्थानीय अधिकारियों के संरक्षण में फ़हीम आज फ़हीम खान बन चुका है। आज भी धनबाद के धन में उसकी हिस्सेदारी तय है।

कश्यप की फ़िल्म देखने वाले बीएससी पार्ट 2 के छात्र जाहिद बताते हैं कि फ़िल्म अच्छी है, लेकिन इसमें केवल 10 फ़ीसदी ही सच्चाई है। इन्होंने यह भी कहा कि आप ही देखिए, अपनी ही आंखों से। क्या आपको यहां गुंडे देखने को मिले हैं, जो राह चलती लड़कियों को उठा लें? क्या आपकी आंखों ने हम वासेपुरवासियों की आंखों में वह भय देखा है, जो फ़िल्म में दिखने वाले लोगों की आंखों में दिखायी देता है?

जाहिद बताते हैं उनका वासेपुर उपेक्षित इलाका है धनबाद शहर का। लोग उसे मिनी पाकिस्तान कहते हैं। हमारी देशभक्ति पर सवाल खड़े किए जाते हैं। शहर में कहीं भी घटना घटती है, सबसे पहले सवाल हमसे पूछा जाता है। जबसे फ़िल्म आयी है तबसे लोग हमारा अधिक उपहास करने लगे हैं। खदानों में अब काम नहीं मिलता है। बेरोजगारी बढ गयी है। कुछेक लोगों ने वासेपुर का परित्याग कर अन्य शहरों में अपना घर बना लिया है। वे चैन से जी रहे हैं।

वासेपुर के एक हिस्से में वे लोग भी रहते हैं, जिन्हें आदिवासी कहा जाता है। यह हिस्सा भी वैसा ही है जैसे देश के अन्य हिस्सों में गांव की सीमा के बाहर लोगों को बसने दिया जाता है। उनके जिम्मे शहर को साफ़ रखने और अन्य कार्यों को करने की जिम्मेवारी है। वासेपुर के बारे में पूछने पर सुखु मुर्मू ने बताया कि वे तो यहां परदेसी की तरह रहते हैं। वोटर कार्ड मिल गया है और अनाज वाला  बीपीएल  कार्ड भी। आजतक जमीन नहीं मिली है। बाप-दादाओं ने बहुत पहले जिस तरह  झोपड़ी बनायी थी, उसी तरह हम आज भी रह रहे हैं।   

बहरहाल, वासेपुर के लोग न तो अनुराग की फ़िल्म से खुश हैं और न ही दुखी। खुश इसलिए नहीं कि इस फ़िल्म ने उनके आशियाने को बदनाम कर दिया है और दुखी इसलिए नहीं कि कम से कम अनुराग ने तो उनके वासेपुर की सच्चाई को दुनिया के सामने लाने का साहस किया है। वे इस बारे में न तो कुछ कहना चाहते हैं और न ही कुछ सुनना। वे कहते हैं कि कौन सुनेगा, कैसे सुनायें…?
                                                       (Published in  Forward Press, September, 2012 Issue)
Forward Press.

3 comments: