नीलम शुक्ला
पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा की सबसे कमजोर कड़ी माने जाने वाले छत्तीसगढ़ में शुरुआती नतीजों में कांग्रेस से कांटे की टक्कर हुई, घंटों असमंजस की स्थिति रही, अंत में चाउर वाले बाबा यानी रमन सिंह का जादू चला और भाजपा को फिर से अगले पांच वर्ष के लिए जनादेश मिल गया। 90 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा ने 49 सीटों पर कब्जा कर लिया है। इस बार भी कांग्रेस का सत्ता में वापसी का सपना मात्र सपना बनकर ही रह गया। कांग्रेस पिछले चुनाव के मुकाबले दो सीटें अधिक जीतते हुए 39 पर अटक गई। एक सीट निर्दलीय और दूसरी बसपा के खाते में गई है।
कांग्रेस की धार कुंद हुई
छत्तीसगढ़ की सत्ता की चाबी कहलाने वाले बस्तर को इस बार वह सम्मान नहीं मिल पाएगा, क्योंकि यहां 8 सीटों पर कब्जा जमाने के बावजूद कांग्रेस सत्ता से अब तक दूर ही है। वर्ष 2008 के चुनाव में भाजपा ने बस्तर के 12 में से 11 क्षेत्रों में विजय हासिल की थी पर इस बार बस्तर की 12 में से भाजपा केवल चार सीटों पर ही विजय हासिल कर पाई। इधर कांग्रेस जो पिछली दफा केवल एक सीट कोंटा पर ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाई थी। गौरतलब है कि कांग्रेस ने अपना सारा ध्यान बस्तर पर ही टिकाए रखा था। लिहाजा बस्तर में तो कांग्रेस ने अपना डंका बजा लिया, किन्तु प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में वह पिछड़ गई। मैदानी इलाके में सतनामी दलितों का टूटा भरोसा नहीं जीत पाई और यही कुछ हद तक उसको सत्ता से दूर ले गई। चुनाव-पूर्व बनी एक नई इकाई, दलित पुरोहितों की सतनाम सेना, ने यहां अपना असर दिखाया। सेना ने, जिसे कथित रूप से भाजपा का समर्थन हासिल था, सभी दलित चुनाव क्षेत्रों से सतनामी उम्मीदवारों को लड़वाया, और इस प्रकार कांग्रेस के वोट काटे, जिसके चलते भाजपा ठीक बीच में आई और जीत गई।
कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ में पहले से ज़्यादा मेहनत की थी। उसकी छत्तीसगढ़ में सीटें भी बढ़ी हैं। छत्तीसगढ़ में ही कांग्रेस की सबसे अच्छी स्थिति बनी। उसके कई कारण हैं। पार्टी ने अपनी समझ से यथासंभव बेहतर उम्मीदवारों को टिकट दिए। क्षेत्रीय गुटों को समायोजित किया गया। पर फिर भी असंतोष कांग्रेस की कुछ टिकटों पर रहा है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने 39 विधायकों में से चार के टिकट काटे। बचे 35 विधायकों में 27 हार गए। दुर्ग सीट पर पार्टी के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा के कारण उनके बेटे को तीन बार हारने के बाद भी टिकट दिया गया पर इस बार अरुण ने यह सीट जीतकर पिता की इज्जत बचा ली।
मानपुर मोहला के कांग्रेसी विधायक शिवराज उसारे का टिकट काटकर वोरा के कारण लगभग अनजान महिला तेजकुंवर नेताम को उम्मीदवार बनाया गया, वह जीती भी पर पार्टी का असंतोष साफ तौर पर दिखा। कहने का तात्पर्य यह कि इस बार कांग्रेस ने आदिवासियों को तो साध लिया पर परंपरागत वोट बैंक से वह दूर हो गए। उनको न तो सतनामियों का साथ मिला और न ही मुस्लिमों का। सतनामी समाज सत्ता की बिसात को बनाने और बिगाडऩे में अहम भूमिका निभाता है। आदिवासी सीटों की बात छोड़ दें तो सतनामी वर्ग प्रदेश की हरेक विधानसभा में मौजूद है लेकिन 90 में से 10 विधानसभाओं में सतनामी समाज का सीधा दखल है। इन इलाकों में बगैर सतनामियों को रिझाए कोई चुनाव नहीं जीता जा सकता। इन विधानसभा क्षेत्रों में मुंगेली, मस्तूरी, नवागढ़, अहिवारा, डोंगरगढ़, बिलाईगढ़, आरंग, सारंगढ़, सराईपाली और पामगढ़ शामिल हैं। इस बार कांग्रेस के खाते में इस समाज की 10 सीटों में से मात्र एक सीट गई है। इसी तरह कांग्रेस के दो मुस्लिम विधायक मोहम्मद अकबर और बदरुद्दीन कुरैशी सक्रियता के बावजूद हार गए। कई चुनावों में लगातार अविजित नेतापक्ष रविन्द्र चौबे और सबसे वरिष्ठ विधायक रामपुकार सिंह व बोधराम कंवर को भी इस बार पराजय का घूंट पीना पड़ा। छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिले में सबसे अप्रत्याशित हार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रवींद्र चौबे की हुई है। अविभाजित मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वीसी शुक्ल के भतीजे अमितेश शुक्ला भी परिवार के गढ़ माने जाने वाले रजिम से हारे। कांग्रेस के ये सभी दिग्गज उन सीटों पर हारे जहां नई-नवेली सतनाम सेना ने उम्मीदवार उतारे।
भाजपा गिरते-पड़ते जीत ही गई
सरकार बनाने वाली भाजपा को भी सत्ता जरूर मिल गई है पर कई जातियों और जनजातियों का उन पर से विश्वास डगमगाया है। इसमें साहू जाति प्रमुख है। छत्तीसगढ़ में रहने वाले पिछड़े वर्ग की आबादी 27 फीसदी है। इसमें सबसे संगठित तौर पर साहू समाज ही उभरकर सामने आया है। 90 में से 34 सीटों पर साहू समाज के मतदाता प्रभावशाली संख्या में हैं और इनमें से भी 24 सीटों का पूरा नतीजा यह समाज ही तय करता है। सरकारी आंकड़े के मुताबिक 27 लाख साहू मतदाता हैं और 24 सीटें ऐसी हैं जहां सारे राजनीतिक समीकरण साहू समाज के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। भाजपा का साथ देने वाला साहू समाज भाजपा की एक बड़ी नेता के कारण अब भाजपा से दूरी बना रहा है जो विधानसभा चुनाव में भी साफ दिखा। साथ ही स्व. ताराचंद साहू का भाजपा छोड़कर नई पार्टी बनाना भी साहू समाज को भाजपा से दूर ले गया। ताराचंद की छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच के कमजोर हो जाने के बावजूद इन चुनावों में भाजपा के केवल दो साहू उम्मीदवार, रमशीला साहू व अशोक साहू ही जीत सके। मंत्री चंद्रशेखर साहू को हार का सामना करना पड़ा।
इसी तरह पूर्व विधानसभा अध्यक्ष प्रेमप्रकाश पांडे और पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर की वापसी से नए सत्ता समीकरण खुलेंगे। वैसे अगर गौर किया जाए तो छत्तीसगढ़ भाजपा में व्यवसायी विधायकों ने शिकंजा पहले से ज़्यादा कस लिया है। धाकड़ विधायक बृजमोहन अग्रवाल सहित अमर अग्रवाल, रोशनलाल अग्रवाल, संतोष बाफना, राजेश मूणत, गौरीशंकर अग्रवाल, लाभचंद बाफना, विद्यारतन भसीन, श्रीचंद सुंदरानी और शिवरतन शर्मा वगैरह इसका प्रतिनिधित्व करते हैं।
सच यह भी है कि छत्तीसगढ़ में जातिगत आधार पर बदले राजनीतिक समीकरण सिर्फ विधानसभा तक ही सीमित नहीं रहेंगे बल्कि वृहद् रूप लेकर अपना असर 2014 के लोकसभा चुनाव में भी दिखाएंगे। बदलते जातिगत समीकरण किसी भी राजनीतिक दल के समीकरण बना व बिगाड़ सकते हैं इसमें कोई शक नहीं। अब देखना यह है कि यह समीकरण किसको कितना फायदा पहुंचाते हैं और किसको कितना नुकसान।
(Published in Forward Press, Jan, 2014Issue)
Forward Press.
पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा की सबसे कमजोर कड़ी माने जाने वाले छत्तीसगढ़ में शुरुआती नतीजों में कांग्रेस से कांटे की टक्कर हुई, घंटों असमंजस की स्थिति रही, अंत में चाउर वाले बाबा यानी रमन सिंह का जादू चला और भाजपा को फिर से अगले पांच वर्ष के लिए जनादेश मिल गया। 90 सदस्यीय विधानसभा में भाजपा ने 49 सीटों पर कब्जा कर लिया है। इस बार भी कांग्रेस का सत्ता में वापसी का सपना मात्र सपना बनकर ही रह गया। कांग्रेस पिछले चुनाव के मुकाबले दो सीटें अधिक जीतते हुए 39 पर अटक गई। एक सीट निर्दलीय और दूसरी बसपा के खाते में गई है।
कांग्रेस की धार कुंद हुई
छत्तीसगढ़ की सत्ता की चाबी कहलाने वाले बस्तर को इस बार वह सम्मान नहीं मिल पाएगा, क्योंकि यहां 8 सीटों पर कब्जा जमाने के बावजूद कांग्रेस सत्ता से अब तक दूर ही है। वर्ष 2008 के चुनाव में भाजपा ने बस्तर के 12 में से 11 क्षेत्रों में विजय हासिल की थी पर इस बार बस्तर की 12 में से भाजपा केवल चार सीटों पर ही विजय हासिल कर पाई। इधर कांग्रेस जो पिछली दफा केवल एक सीट कोंटा पर ही अपनी उपस्थिति दर्ज करा पाई थी। गौरतलब है कि कांग्रेस ने अपना सारा ध्यान बस्तर पर ही टिकाए रखा था। लिहाजा बस्तर में तो कांग्रेस ने अपना डंका बजा लिया, किन्तु प्रदेश के अन्य क्षेत्रों में वह पिछड़ गई। मैदानी इलाके में सतनामी दलितों का टूटा भरोसा नहीं जीत पाई और यही कुछ हद तक उसको सत्ता से दूर ले गई। चुनाव-पूर्व बनी एक नई इकाई, दलित पुरोहितों की सतनाम सेना, ने यहां अपना असर दिखाया। सेना ने, जिसे कथित रूप से भाजपा का समर्थन हासिल था, सभी दलित चुनाव क्षेत्रों से सतनामी उम्मीदवारों को लड़वाया, और इस प्रकार कांग्रेस के वोट काटे, जिसके चलते भाजपा ठीक बीच में आई और जीत गई।
कांग्रेस ने छत्तीसगढ़ में पहले से ज़्यादा मेहनत की थी। उसकी छत्तीसगढ़ में सीटें भी बढ़ी हैं। छत्तीसगढ़ में ही कांग्रेस की सबसे अच्छी स्थिति बनी। उसके कई कारण हैं। पार्टी ने अपनी समझ से यथासंभव बेहतर उम्मीदवारों को टिकट दिए। क्षेत्रीय गुटों को समायोजित किया गया। पर फिर भी असंतोष कांग्रेस की कुछ टिकटों पर रहा है। छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने 39 विधायकों में से चार के टिकट काटे। बचे 35 विधायकों में 27 हार गए। दुर्ग सीट पर पार्टी के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष मोतीलाल वोरा के कारण उनके बेटे को तीन बार हारने के बाद भी टिकट दिया गया पर इस बार अरुण ने यह सीट जीतकर पिता की इज्जत बचा ली।
मानपुर मोहला के कांग्रेसी विधायक शिवराज उसारे का टिकट काटकर वोरा के कारण लगभग अनजान महिला तेजकुंवर नेताम को उम्मीदवार बनाया गया, वह जीती भी पर पार्टी का असंतोष साफ तौर पर दिखा। कहने का तात्पर्य यह कि इस बार कांग्रेस ने आदिवासियों को तो साध लिया पर परंपरागत वोट बैंक से वह दूर हो गए। उनको न तो सतनामियों का साथ मिला और न ही मुस्लिमों का। सतनामी समाज सत्ता की बिसात को बनाने और बिगाडऩे में अहम भूमिका निभाता है। आदिवासी सीटों की बात छोड़ दें तो सतनामी वर्ग प्रदेश की हरेक विधानसभा में मौजूद है लेकिन 90 में से 10 विधानसभाओं में सतनामी समाज का सीधा दखल है। इन इलाकों में बगैर सतनामियों को रिझाए कोई चुनाव नहीं जीता जा सकता। इन विधानसभा क्षेत्रों में मुंगेली, मस्तूरी, नवागढ़, अहिवारा, डोंगरगढ़, बिलाईगढ़, आरंग, सारंगढ़, सराईपाली और पामगढ़ शामिल हैं। इस बार कांग्रेस के खाते में इस समाज की 10 सीटों में से मात्र एक सीट गई है। इसी तरह कांग्रेस के दो मुस्लिम विधायक मोहम्मद अकबर और बदरुद्दीन कुरैशी सक्रियता के बावजूद हार गए। कई चुनावों में लगातार अविजित नेतापक्ष रविन्द्र चौबे और सबसे वरिष्ठ विधायक रामपुकार सिंह व बोधराम कंवर को भी इस बार पराजय का घूंट पीना पड़ा। छत्तीसगढ़ के बेमेतरा जिले में सबसे अप्रत्याशित हार विधानसभा में नेता प्रतिपक्ष रवींद्र चौबे की हुई है। अविभाजित मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री वीसी शुक्ल के भतीजे अमितेश शुक्ला भी परिवार के गढ़ माने जाने वाले रजिम से हारे। कांग्रेस के ये सभी दिग्गज उन सीटों पर हारे जहां नई-नवेली सतनाम सेना ने उम्मीदवार उतारे।
भाजपा गिरते-पड़ते जीत ही गई
सरकार बनाने वाली भाजपा को भी सत्ता जरूर मिल गई है पर कई जातियों और जनजातियों का उन पर से विश्वास डगमगाया है। इसमें साहू जाति प्रमुख है। छत्तीसगढ़ में रहने वाले पिछड़े वर्ग की आबादी 27 फीसदी है। इसमें सबसे संगठित तौर पर साहू समाज ही उभरकर सामने आया है। 90 में से 34 सीटों पर साहू समाज के मतदाता प्रभावशाली संख्या में हैं और इनमें से भी 24 सीटों का पूरा नतीजा यह समाज ही तय करता है। सरकारी आंकड़े के मुताबिक 27 लाख साहू मतदाता हैं और 24 सीटें ऐसी हैं जहां सारे राजनीतिक समीकरण साहू समाज के इर्द-गिर्द ही घूमते हैं। भाजपा का साथ देने वाला साहू समाज भाजपा की एक बड़ी नेता के कारण अब भाजपा से दूरी बना रहा है जो विधानसभा चुनाव में भी साफ दिखा। साथ ही स्व. ताराचंद साहू का भाजपा छोड़कर नई पार्टी बनाना भी साहू समाज को भाजपा से दूर ले गया। ताराचंद की छत्तीसगढ़ स्वाभिमान मंच के कमजोर हो जाने के बावजूद इन चुनावों में भाजपा के केवल दो साहू उम्मीदवार, रमशीला साहू व अशोक साहू ही जीत सके। मंत्री चंद्रशेखर साहू को हार का सामना करना पड़ा।
इसी तरह पूर्व विधानसभा अध्यक्ष प्रेमप्रकाश पांडे और पूर्व मंत्री अजय चंद्राकर की वापसी से नए सत्ता समीकरण खुलेंगे। वैसे अगर गौर किया जाए तो छत्तीसगढ़ भाजपा में व्यवसायी विधायकों ने शिकंजा पहले से ज़्यादा कस लिया है। धाकड़ विधायक बृजमोहन अग्रवाल सहित अमर अग्रवाल, रोशनलाल अग्रवाल, संतोष बाफना, राजेश मूणत, गौरीशंकर अग्रवाल, लाभचंद बाफना, विद्यारतन भसीन, श्रीचंद सुंदरानी और शिवरतन शर्मा वगैरह इसका प्रतिनिधित्व करते हैं।
सच यह भी है कि छत्तीसगढ़ में जातिगत आधार पर बदले राजनीतिक समीकरण सिर्फ विधानसभा तक ही सीमित नहीं रहेंगे बल्कि वृहद् रूप लेकर अपना असर 2014 के लोकसभा चुनाव में भी दिखाएंगे। बदलते जातिगत समीकरण किसी भी राजनीतिक दल के समीकरण बना व बिगाड़ सकते हैं इसमें कोई शक नहीं। अब देखना यह है कि यह समीकरण किसको कितना फायदा पहुंचाते हैं और किसको कितना नुकसान।
(Published in Forward Press, Jan, 2014Issue)
Forward Press.
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