Wednesday 26 June 2013

एक ही भाषा में हो पत्रिका


-शंभू दयाल वाजपेयी
मैं पत्रिका को द्विभाषी के बजाय हिंदी में किए जाने के पक्ष में हूं। हिंदी का पाठक वर्ग अलग है। यह अंग्रेजी से मेल नहीं खाता है। चूंकि हिंदी का ही बाजार बड़ा है और उसके अधिकांश लोग अंग्रेजी नहीं जानते इस लिए उन्हें वही सामग्री अंग्रजी में भी होने से औचित्यहीन और बोरिंग लगती है। दोनों भाषाओं को जानने वालों की भी यही स्थिति है। आवश्यकता होने पर अंग्रेजी में पृथक पत्रिका दे सकते हैं। वैसे तो टीवी व नेट मीडिया के बढ़ते चलन के चलते पत्रिकाओं और वह भी मासिक का बाजार में टिके रहना बहुत मुश्किल हो गया है। जब सूचना आवागमन के इतने तेज साधन नहीं थे तब पत्रिकाएं चलती थीं।अब तो गांवों में भी रोज तीन-चार अखबार जाने लगे हैं। ऐसे में मासिक पत्रिका को कितना बिक्री योग्य बनाया जा सकता है। अपने आप में सवाल है। गांव देहात और पिछड़ो को केन्द्रित करते हुए अखबार या साप्ताहिक पत्रिका की बेहतर संभावनाएं हो सकती हैं। इनके माध्यम से बड़ा और प्रभा
वी नेटवर्क खड़ा कर समाज में बड़ी व निर्णायक भूमिका निभाई जा सकती है। हानि लाभ देकर राजस्व भी आता है।

(शंभू दयाल वाजपेयी फारवर्ड प्रेस के बरेली, उत्तर प्रदेश ब्‍यूरो के संवाददाता हैं। उनहोंने यह लिखित वक्‍तव्‍य फारवर्ड प्रेस के संवाददाताओं के लिए अयोजित कार्यशाला, 21-22 जून, 2013 को प्रस्‍तुत किया था) 

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