जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी, (जेएनयू) बनारस हिंदू यूनिवर्सिटी, बीएचयू और अखिल भारतीय
आयुर्विज्ञान संस्थान, एम्स जैसे सर्वोच्च शिक्षण संस्थानों में एक तरह से ओबीसी
प्रवेश निषेध की तख्तियां लगा दी गई हैं।
पिछले दिनों जेएनयू में प्रोफेसर और एसोसिएट प्रोफेसर के 163 पदों पर नियुक्ति के
लिए विज्ञापन निकला है लेकिन इसमें ओबीसी के लिए एक भी सीट आरक्षित नहीं की गई है।
गौरतलब है कि 27 प्रतिशत के हिसाब से इसमें 44 सीटें ओबीसी की होनी चाहिए। फारवर्ड प्रेस ने जब इस संबंध
में जेएनयू के कुलपति एसके सपोरी से पूछा तो उन्होंने कहा कि ओबीसी को इन पदों पर
आरक्षण नहीं देने का निर्णय जेएनयू एकेडमिक काउंसिल में लिया गया है।
इस मुद्दे पर एआईबीएसएफ अध्यक्ष जितेंद्र यादव बताते हैं कि जेएनयू कुलपति के
इस रवैये के खिलाफ यूनिवर्सिर्टी के ओबीसी
छात्रों ने मानव संसाधन विकास मंत्रालय पर 5 मार्च को विरोध-प्रदर्शन भी
किया लेकिन जब निर्णय लेने वाले सभी पदों पर द्रोणाचार्य बैठे हों तो एकलव्यों का
अंगूठा कटना लाजिमी है। यही हाल बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी का भी है। बीएचयू में 312 प्रोफेसर और एसोसिएट
प्रोफेसर की नियुक्ति के लिए विज्ञापन जारी हुए हैं लेकिन यहां भी ओबीसी आरक्षण
लागू नहीं किया गया है। यहां 27 प्रतिशत के हिसाब से 85 सीटें ओबीसी की होनी चाहिए।
दूसरी ओर फारवर्ड प्रेस को उपलब्ध करवाई गई सूचना के अनुसार एम्स में
प्रोफेसरों के 50 पद खाली हैं। दिसंबर, 2012 में एम्स ने 37 प्रोफेसरों की सीधी नियुक्ति के लिए विज्ञापन
निकाला था। इसके तहत 20 सामान्य वर्ग, 13 ओबीसी व 4 एससी प्रोफेसरों की नियुक्ति होनी थी। विज्ञापन
प्रकाशित किए जाने के बाद फैकल्टी एसोसिएशन ऑफ एम्स, फैम्स ने इस पर आपत्ति जताई।
फैम्स वही संगठन है जिसने 1990 में ओबीसी आरक्षण के विरोध में लम्बा आंदोलन चलाया था।
फैम्स ने इस मुद्दे को केन्द्रीय स्वास्थ मंत्रालय के समक्ष उठाया। चूंकि मामला
सीधे-सीधे आरक्षण के विरोध में था इसलिए स्वास्थ्य मंत्रालय ने भी त्वरित
कार्यवाही करते हुए भर्ती प्रक्रिया पर रोक लगा दी और पूर्व स्वास्थ्य सचिव पीके प्रधान
की अध्यक्षता में एक पांच सदस्यीय कमेटी का गठन कर दिया। फैम्स सीधी नियुक्ति
प्रक्रिया का विरोध कर रहा है और प्रमोशन के द्वारा इन पदों को भरने की मांग कर
रहा है, क्योंकि
पदोन्नति में आरक्षण लागू नहीं है। 2003 में 164 फैकल्टी सदस्यों की सीधी भर्ती से नियुक्ति हुई थी
परंतु तब फैम्स ने इसका विरोध नहीं किया था, क्योंकि उस समय एम्स ने ओबीसी
आरक्षण नहीं लागू किया था। न केवल एम्स बल्कि देश के अन्य छ: एम्स, राममनोहर लोहिया
इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस और लेडी
हार्डिंग मेडिकल कालेज जैसे संस्थानों में भी आरक्षण के नियमों को धता बताया जा रहा है। आरएमएल में 88 और लेडी हार्डिंग में 77 पद हैं लेकिन आरक्षण का
कोई प्रावधान नहीं है। एम्स के आरक्षण विरोधी व्यवहार के खिलाफ संघर्षरत जनहित अभियान के प्रयास से विभिन्न
पार्टियों के सात सांसदों ने इस संबंध में 5 अप्रैल को पत्र लिखकर
प्रधानमंत्री से अपनी नाराजगी जताई थी। शरद यादव ने लिखा कि प्रधानमंत्री कार्यालय
और स्वास्थ्य मंत्रालय की मदद से एम्स आरक्षण विरोधियों का गढ़ बना हुआ है। सांसद
रमा देवी ने लिखा कि रिव्यू कमेटी में रिजर्व केटेगरी का एक भी सदस्य नहीं है,
फिर कैसे इस कमेटी
की सिफारिशों को स्वीकार किया जा सकता है। जदयू सांसद अली अनवर, बीएसपी के दारा सिंह
चौहान, कांग्रेस
के असफरार-उल-हक लोजपा के रामविलास पासवान, प्रसन्न कुमार पत्तासनी और भाजपा
के हुक्मदेव नारायण यादव ने भी प्रधानमंत्री को पत्र लिखकर यथाशीघ्र नियुक्ति प्रक्रिया
शुरू करने की मांग की थी।
लेकिन जैसे कि एक फिल्मी गाने के बोल हैं न कि बातें हैं बातों का क्या,
ठीक उसी तरह
राजनीति के हिसाब से देखें तो सत्तारूढ कांग्रेस के लिए तो ये विरोधियों की
चिट्ठियां हैं, चिट्ठियों का क्या। किन्तु चिंताजनक यह है कि जेएनयू, बीएचयू और एम्स में बड़ी संख्या
में प्राध्यापकों के पद अरसे बाद घोषित हुए हैं। अगर इस बार भी ओबीसी अपना अधिकार
लेने में चूक जाते हैं तो यह चूक ऐतिहासिक होगी, जिसका दूरगामी नकारात्मक प्रभाव
न सिर्फ इस देश के अकादमिक जगत बल्कि
राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था पर भी पड़ेगा।
(Published in Forward Press, May, 2013 Issue)
(अरुण कुमार फारवर्ड प्रेस के संवाददाता हैं)
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