-प्रणय प्रियंवद
नीतीश कुमार ने भारतीय जनता पार्टी, भाजपा से गठबंधन तोडऩे के बाद गत 19 जून को बिहार विधानसभा में अपनी पार्टी जनता दल युनाइटेड, जद यू का पूर्ण बहुमत सिद्ध कर दिया। हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने नीतीश कुमार पर अवसरवादी राजनीति करने और 17 साल पुराने गठबंधन को तोडऩे का जो आरोप लगाया है वह गंभीर है। अब नीतीश कुमार के सामने बड़ी चुनौती यह है कि वे कैसे यह दिखाते हैं कि वे बड़े सेक्यूलर नेता हैं! यानी लालू प्रसाद से बड़े सेक्यूलर नेता।
नरेन्द्र मोदी के सवाल पर भाजपा से दोस्ती तोडऩा नीतीश कुमार के लिए इतना आसान नहीं रहा। लेकिन उन्होंने यह साहस दिखाया। धार्मिक कट्टरता के पेड़ पर चढ़कर उसकी टहनी को काटकर भाग निकलने की कोशिश की राजनीति तब और उपयोगी सिद्ध हो सकती है जब वे किसी मुसलमान नेता को उपमुख्यमंत्री का पद सौंप दें । गौरतलब है कि बिहार में वर्ष 2005 में जनता दल युनाइटेड और भाजपा की संयुक्त राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनने के बाद से ही उपमुख्यमंत्री का पद वैश्य जाति से आने वाले भाजपा के कद्दावर नेता सुशील कुमार मोदी के पास था। लेकिन अब नीतीश कुमार गठबंधन सरकार में नहीं हैं, बल्कि एकछत्र राज कर रहे हैं इसलिए उपमुख्यमंत्री बनाने की गठबंधन धर्म की बाध्यता अब उन पर नहीं है।
वस्तुत: मुसलमान सिर्फ इससे नीतीश कुमार की ओर नहीं ढुलकने लगेंगे कि उन्होंने नरेन्द्र मोदी के सवाल पर बीजेपी का साथ छोड़ दिया। बिहार में यह किस्सा आम है कि नीतीश और मोदी मौसेरे भाई हैं। नीतीश कुमार द्वारा पूर्व में नरेद्र मोदी की तारीफों के पुल बांधे जाने के किस्से व दोनों की तस्वीरें अखबारों में इन दिनों खूब छप रही हैं। नीतीश कुमार के घनि-ठ मित्रों व बिहार भाजपा ने भी इस तथ्य को अपने स्तर पर खूब प्रचारित किया है।
नीतीश कुमार अपनी पार्टी के किसी मुसलमान को उपमुख्यमंत्री बनाकर एक साथ पांच लक्ष्य हासिल कर सकेंगे। वे लालू के माय समीकरण को तोड़ पाएंगे, मुसलमानों का भरोसा जीत पाएंगे और अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को ताकत दे पाएंगे। ऐसी स्थिति में लालू चारों खाने चित्त हो जाएंगे और बिहार में मुसलमान मुख्यमंत्री के सवाल पर जो राजनीतिक दांव-पेंच रामविलास पासवान करते आ रहे हैं, उनका भी खात्मा वे अपने पक्ष में कर लेंगे।
बिहार में मुसलमानों की आबादी लगभग 16 फीसदी है। इस लिहाज से देखें तो बिहार विधानसभा में कम से कम 38-40 मुसलमान विधायकों को पहुंचना चाहिए, लेकिन पहुंचते हैं 24-25। बात लोकसभा की करें तो 40 सीटों पर महज चार-पांच मुसलमान ही बिहार से जाते रहे हैं। वर्ष 2009 में तीन मुससलमान बिहार से जीतकर लोकसभा में गए। 2004 में 5, 1999 में 3, 1998 में 6, 1996 में 4, 1991 में 6, 1989 में 3, 1984 में 6, 1980 में 4, 1977 में 2, 1971 में 3, 1967 में 2, 1962 में 2, 1957 में 3 और 1952 में 3। मुसलमानों को टिकट देने में लोजपा और राजद जैसी पार्टियां आगे रहीं हैं। (आंकड़े वरि-ठ पत्रकार श्रीकांत की पुस्तिका बिहार के मुसलमान : राजनीति में हिस्सेदारी से उद्धृत)
विधानसभा और लोकसभा में मुसलमानों की कम हिस्सेदारी बताती है कि बिहार में इस तबके में अभी भी राजनीतिक जागरुकता की कमी है। उनकी माली हालत तो और भी खराब है। जनगणना रिपोर्ट के अनुसार बिहार के मुसलमान समुदाय में खेतिहर मजदूर 51.5 प्रतिशत हैं। सच्चर आयोग की रिपोर्ट और जननणना 2001 पर गौर करें। बिहार में मुसलमानों में साक्षरता 42 फीसदी है। सरकारी नौकरियों में मुस्लिम कर्मचारी महज 7.6 हैं। शिक्षा विभाग में ये 12.3 फीसदी हैं।
बिहार में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुस्लिम वोट बैंक को खूब भुनाया गया। लालू प्रसाद ने लालकृष्ण आडवाणी का राम रथ रोका और उन्हें गिरफ्तार कर रातों-रात बड़े सेक्यूलर नेता बन गए। अब सवाल यह है कि क्या नीतीश कुमार नरेन्द्र मोदी के पीएम रथ को रोककर धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के चैम्पियन बन पाएंगे ? नीतीश कुमार ने नरेन्द्र मोदी वाली बीजेपी का साथ छोड़ स्वयं पर दबाव कम किया है। लेकिन जब नरेन्द्र मोदी अपना हिन्दूवादी रथ बिहार में दौडाएंगे तो नीतीश उसे कैसे रोकेंगे। आडवाणी को गिरफ्तार करने में नीतीश कुमार की भी भूमिका रही थी। लेकिन सारा श्रेय लालू लूट ले गए। (नीतीश कुमार की यह कसक जानने के लिए श्रीकांत की किताब चि_ियों की राजनीति, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली देखें) अब बदले हुए परिप्रेक्ष्य में एक बार फिर वैसी ही चुनौती नीतीश कुमार के सामने है।
नीतीश कुमार को यह भी भय है कि कहीं नरेन्द्र मोदी और सुशील मोदी का अति पिछड़ा आधार उन्हें भारी नुकसान न पहुंचा दे । बाकी कसर लालू प्रसाद तो पूरी कर ही देंगे। बिहार में 35 फीसदी अति पिछड़ी आबादी है। इस आबादी को पंचायतों में आरक्षण देकर नीतीश कुमार ने सन 2010 में रिझाया। इसके परिणाम भी उनके पक्ष में आए। अब बीजेपी अति पिछडी जाति, घांची गुजरात में तेली जाति के समकक्ष के नरेन्द्र मोदी के बहाने इस वोट वैंक को उनसे हथियाना चाहती है।
नीतीश कुमार राजनीति के जिस मोड़ पर खड़े हैं वहां जैसा कि मैंने आरंभ में ही कहा, उन्हें किसी मुसलमान को उपमुख्यमंत्री बनाना चाहिए। नीतीश कुमार का यह फैसला न सिर्फ उनकी अपनी राजनीति के लिए बल्कि सूबे की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए भी बेहतर होगा। या फिर यह भी हो सकता है कि नीतीश किसी अति पिछड़े को उपमुख्य्मंत्री का पद देकर नरेन्द्र मोदी लहर की हवा बिहार में निकालना चाहें। यह भी उनके लिए बहुत बुरा विकल्प नहीं होगा। अंतत: उनकी प्राथमिकता बिहार में अपने किले को बचाना ही होना चाहिए। लेकिन अगर वे उपमुख्यमंत्री का पद भूमिहार, राजपूत नेता को देकर बीजेपी की ओर सवर्णों के झुकाव को कम करने की सोचेंगे तो वे एक बार फिर उसी प्रतिक्रांति का आगाज करेंगे, जिसके लिए उनका शासनकाल बदनाम रहा है। ऐसा करके वे पिछड़े, अति पिछड़ों के बीच अपना बचा-खुचा विश्वास खो देंगे और न घर से रहेंगे न घाट के।
(प्रणय प्रियंवद आर्यन टीवी पटना में वरिष्ठ पत्रकार हैं)
(Published in Forward Press, July, 2013 Issue)
Forward Press.
नीतीश कुमार ने भारतीय जनता पार्टी, भाजपा से गठबंधन तोडऩे के बाद गत 19 जून को बिहार विधानसभा में अपनी पार्टी जनता दल युनाइटेड, जद यू का पूर्ण बहुमत सिद्ध कर दिया। हालांकि भारतीय जनता पार्टी ने नीतीश कुमार पर अवसरवादी राजनीति करने और 17 साल पुराने गठबंधन को तोडऩे का जो आरोप लगाया है वह गंभीर है। अब नीतीश कुमार के सामने बड़ी चुनौती यह है कि वे कैसे यह दिखाते हैं कि वे बड़े सेक्यूलर नेता हैं! यानी लालू प्रसाद से बड़े सेक्यूलर नेता।
नरेन्द्र मोदी के सवाल पर भाजपा से दोस्ती तोडऩा नीतीश कुमार के लिए इतना आसान नहीं रहा। लेकिन उन्होंने यह साहस दिखाया। धार्मिक कट्टरता के पेड़ पर चढ़कर उसकी टहनी को काटकर भाग निकलने की कोशिश की राजनीति तब और उपयोगी सिद्ध हो सकती है जब वे किसी मुसलमान नेता को उपमुख्यमंत्री का पद सौंप दें । गौरतलब है कि बिहार में वर्ष 2005 में जनता दल युनाइटेड और भाजपा की संयुक्त राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की सरकार बनने के बाद से ही उपमुख्यमंत्री का पद वैश्य जाति से आने वाले भाजपा के कद्दावर नेता सुशील कुमार मोदी के पास था। लेकिन अब नीतीश कुमार गठबंधन सरकार में नहीं हैं, बल्कि एकछत्र राज कर रहे हैं इसलिए उपमुख्यमंत्री बनाने की गठबंधन धर्म की बाध्यता अब उन पर नहीं है।
वस्तुत: मुसलमान सिर्फ इससे नीतीश कुमार की ओर नहीं ढुलकने लगेंगे कि उन्होंने नरेन्द्र मोदी के सवाल पर बीजेपी का साथ छोड़ दिया। बिहार में यह किस्सा आम है कि नीतीश और मोदी मौसेरे भाई हैं। नीतीश कुमार द्वारा पूर्व में नरेद्र मोदी की तारीफों के पुल बांधे जाने के किस्से व दोनों की तस्वीरें अखबारों में इन दिनों खूब छप रही हैं। नीतीश कुमार के घनि-ठ मित्रों व बिहार भाजपा ने भी इस तथ्य को अपने स्तर पर खूब प्रचारित किया है।
नीतीश कुमार अपनी पार्टी के किसी मुसलमान को उपमुख्यमंत्री बनाकर एक साथ पांच लक्ष्य हासिल कर सकेंगे। वे लालू के माय समीकरण को तोड़ पाएंगे, मुसलमानों का भरोसा जीत पाएंगे और अपनी धर्मनिरपेक्ष छवि को ताकत दे पाएंगे। ऐसी स्थिति में लालू चारों खाने चित्त हो जाएंगे और बिहार में मुसलमान मुख्यमंत्री के सवाल पर जो राजनीतिक दांव-पेंच रामविलास पासवान करते आ रहे हैं, उनका भी खात्मा वे अपने पक्ष में कर लेंगे।
बिहार में मुसलमानों की आबादी लगभग 16 फीसदी है। इस लिहाज से देखें तो बिहार विधानसभा में कम से कम 38-40 मुसलमान विधायकों को पहुंचना चाहिए, लेकिन पहुंचते हैं 24-25। बात लोकसभा की करें तो 40 सीटों पर महज चार-पांच मुसलमान ही बिहार से जाते रहे हैं। वर्ष 2009 में तीन मुससलमान बिहार से जीतकर लोकसभा में गए। 2004 में 5, 1999 में 3, 1998 में 6, 1996 में 4, 1991 में 6, 1989 में 3, 1984 में 6, 1980 में 4, 1977 में 2, 1971 में 3, 1967 में 2, 1962 में 2, 1957 में 3 और 1952 में 3। मुसलमानों को टिकट देने में लोजपा और राजद जैसी पार्टियां आगे रहीं हैं। (आंकड़े वरि-ठ पत्रकार श्रीकांत की पुस्तिका बिहार के मुसलमान : राजनीति में हिस्सेदारी से उद्धृत)
विधानसभा और लोकसभा में मुसलमानों की कम हिस्सेदारी बताती है कि बिहार में इस तबके में अभी भी राजनीतिक जागरुकता की कमी है। उनकी माली हालत तो और भी खराब है। जनगणना रिपोर्ट के अनुसार बिहार के मुसलमान समुदाय में खेतिहर मजदूर 51.5 प्रतिशत हैं। सच्चर आयोग की रिपोर्ट और जननणना 2001 पर गौर करें। बिहार में मुसलमानों में साक्षरता 42 फीसदी है। सरकारी नौकरियों में मुस्लिम कर्मचारी महज 7.6 हैं। शिक्षा विभाग में ये 12.3 फीसदी हैं।
बिहार में बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद मुस्लिम वोट बैंक को खूब भुनाया गया। लालू प्रसाद ने लालकृष्ण आडवाणी का राम रथ रोका और उन्हें गिरफ्तार कर रातों-रात बड़े सेक्यूलर नेता बन गए। अब सवाल यह है कि क्या नीतीश कुमार नरेन्द्र मोदी के पीएम रथ को रोककर धर्मनिरपेक्ष शक्तियों के चैम्पियन बन पाएंगे ? नीतीश कुमार ने नरेन्द्र मोदी वाली बीजेपी का साथ छोड़ स्वयं पर दबाव कम किया है। लेकिन जब नरेन्द्र मोदी अपना हिन्दूवादी रथ बिहार में दौडाएंगे तो नीतीश उसे कैसे रोकेंगे। आडवाणी को गिरफ्तार करने में नीतीश कुमार की भी भूमिका रही थी। लेकिन सारा श्रेय लालू लूट ले गए। (नीतीश कुमार की यह कसक जानने के लिए श्रीकांत की किताब चि_ियों की राजनीति, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली देखें) अब बदले हुए परिप्रेक्ष्य में एक बार फिर वैसी ही चुनौती नीतीश कुमार के सामने है।
नीतीश कुमार को यह भी भय है कि कहीं नरेन्द्र मोदी और सुशील मोदी का अति पिछड़ा आधार उन्हें भारी नुकसान न पहुंचा दे । बाकी कसर लालू प्रसाद तो पूरी कर ही देंगे। बिहार में 35 फीसदी अति पिछड़ी आबादी है। इस आबादी को पंचायतों में आरक्षण देकर नीतीश कुमार ने सन 2010 में रिझाया। इसके परिणाम भी उनके पक्ष में आए। अब बीजेपी अति पिछडी जाति, घांची गुजरात में तेली जाति के समकक्ष के नरेन्द्र मोदी के बहाने इस वोट वैंक को उनसे हथियाना चाहती है।
नीतीश कुमार राजनीति के जिस मोड़ पर खड़े हैं वहां जैसा कि मैंने आरंभ में ही कहा, उन्हें किसी मुसलमान को उपमुख्यमंत्री बनाना चाहिए। नीतीश कुमार का यह फैसला न सिर्फ उनकी अपनी राजनीति के लिए बल्कि सूबे की लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए भी बेहतर होगा। या फिर यह भी हो सकता है कि नीतीश किसी अति पिछड़े को उपमुख्य्मंत्री का पद देकर नरेन्द्र मोदी लहर की हवा बिहार में निकालना चाहें। यह भी उनके लिए बहुत बुरा विकल्प नहीं होगा। अंतत: उनकी प्राथमिकता बिहार में अपने किले को बचाना ही होना चाहिए। लेकिन अगर वे उपमुख्यमंत्री का पद भूमिहार, राजपूत नेता को देकर बीजेपी की ओर सवर्णों के झुकाव को कम करने की सोचेंगे तो वे एक बार फिर उसी प्रतिक्रांति का आगाज करेंगे, जिसके लिए उनका शासनकाल बदनाम रहा है। ऐसा करके वे पिछड़े, अति पिछड़ों के बीच अपना बचा-खुचा विश्वास खो देंगे और न घर से रहेंगे न घाट के।
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