--सौविक गांगुली
डाक्टर अनिल कुमार मुर्मू, 'वेस्ट बंगाल युनिवर्सिटी ऑफ एनिमल एंड लाईफ साइंसेज, कोलकाता से पशु चिकित्सा एवं पशुपालन में स्नातक हैं और इस समय कोलकाता के जाने-माने व सम्मानित पशु चिकित्सक हैं. परन्तु पुरुलिया (अद्रा) जिले के इस पशु-प्रेमी संथाल की जीवनयात्रा आसान नहीं रही. जानवरों के प्रति अपने प्रेम को अपना व्यवसाय बनाने की राह में उनके लिए किसी ने लाल कालीन नहीं बिछाये. फारवर्ड प्रेस के कोलकाता संवाददाता सौविक गांगुली, इस साक्षात्कार के ज़रिये, हमारे पाठकों को उनकी सफलता की कहानी से परिचित करवा रहे हैं.
एफपी : डाक्टर मुर्मू, पशु शल्यचिकित्सक के तौर पर आपकी सफलता के लिए आप निश्चय ही बधाई के पात्र हैं. हमें बताएं कि कोलकाता के इतने जाने-माने पशु चिकित्सक बनने की आपकी राह कितनी कठिन या आसान रही?
एकेएम : (मुस्कुराते हुए)राह क्या कभी आसान हो सकती है? शायद नहीं. हमारे गांव में गरीबी पसरी हुई थी. ऐसे में, पशु शल्यचिकित्सक बनने कास्विप्न देखना, अपने-आप में एक युद्ध जीतने जैसा था. फिर, गरीबी की चक्की में पिसते हुए, इस सपने को पूरा करने का संघर्ष. मैंने सन 2000 में स्नातक परीक्षा पास करली थी परन्तु जल्दी ही मुझे यह समझ में आ गया कि केवल डिग्री से काम नहीं चलने वाला. व्यावहारिक ज्ञान और अनुभव भी उतने ही आवश्यक हैं. सन 2002 में जाकर मैं अपने लिए स्थान बना सका.
एफपी : आपकी सफलता के पीछे मुख्य कारक क्या थे?
एकेएम : कड़ी मेहनत, धैर्य और व्यावसायिक सोच. मेरे अनुभव और ताज़ा प्रकाशनों के ज़रिये चिकित्सा विज्ञान में हो रही नई-नई खोजों की अद्यतन जानकारी रखने की मेरी आदत ने भी मेरी मदद की.
एफपी : क्या आपके उपनाम के कारण आपको अपने काम में कोई परेशानी आयी?
एकेएम : अगर में कहूँ कि नहीं आयी, तो यह झूठ होगा. परन्तु कोलकाता ने मेरा खुलकर साथ दिया. अपने करियर की शुरुआत में, जब मैं ग्रामीण क्षेत्रों में काम करता था, तब ज़रूर मेरे उपनाम के कारण मुझे नीची निगाहों से देखा जाता था. (मुस्कुराते हुए) परन्तु इससे मुझे प्रेरणा ही मिली.
एफपी : आरक्षण के बारे में आपका क्या विचार है?
एकेएम वर्तमान टीएम.सी की सरकारों में कोई फर्क नहीं है. राजनेता यह अच्छी तरह से जानते हैं कि वे पिछडों के वोट तभी तक प्राप्त कर सकेगें जब तक कि पिछड़े, कमजोर और अविकसित बने रहेंगे. केंद्र सरकार के बारे में भी स्थिति यही है.
एफपी:आपकी दृष्टि में इस समस्या का क्या हल हो सकता है? पिछड़े वर्गों के लोगों के लिए आपका क्या सन्देश है?
एकेएम : एक आदर्श समाज में आरक्षण के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिये. परन्तु यह लक्ष्य हासिल करने के लिए, अस्थायी रूप से, सीमित और रचनात्मक आरक्षण ज़रूरी है और साथ ही ज़रूरी है, पिछडों के विकास के लिए निष्ठापूर्ण प्रयास. सरकारी स्कूलों में कोई फीस नहीं लगती परन्तु क्या उनमें पढ़ाई के स्तर की समय-समय पर जाँच की जाती है? पिछड़े वर्गों के बच्चों के लिए, ज़रूरत पडऩे पर, सरकारी खर्च पर निजी कोचिंग इत्यादि की व्यवस्था की जानी चाहिए. सभी के लिए पर्याप्त और उचित मात्रा में भोजन और आवश्यक स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने को उच्चतम प्राथमिकता मिलनी चाहिए. अशिक्षा हमारे देश को भीतर से कमज़ोर कर रही है. जाति-आधारित घृणा और दंगों की जड़ में भी अशिक्षा ही है.
पिछड़े वर्गों के लोगों से मेरा अनुरोध यही है कि वे अपनी शिक्षा पर अधिक से अधिक ध्यान दें. शिक्षा ही असली कुंजी है. हमें सभी परेशानियों और तकलीफों को भूलकर, शिक्षा हासिल करने पर ध्यान देना चाहिए. हमें अंग्रेजी सीखने की भी ज़रूरत है. इससे हमें कई लाभ होंगे. हमें लड़ते रहना है और आगे बढ़ते रहना है.
FORWARD PRESS
डाक्टर अनिल कुमार मुर्मू, 'वेस्ट बंगाल युनिवर्सिटी ऑफ एनिमल एंड लाईफ साइंसेज, कोलकाता से पशु चिकित्सा एवं पशुपालन में स्नातक हैं और इस समय कोलकाता के जाने-माने व सम्मानित पशु चिकित्सक हैं. परन्तु पुरुलिया (अद्रा) जिले के इस पशु-प्रेमी संथाल की जीवनयात्रा आसान नहीं रही. जानवरों के प्रति अपने प्रेम को अपना व्यवसाय बनाने की राह में उनके लिए किसी ने लाल कालीन नहीं बिछाये. फारवर्ड प्रेस के कोलकाता संवाददाता सौविक गांगुली, इस साक्षात्कार के ज़रिये, हमारे पाठकों को उनकी सफलता की कहानी से परिचित करवा रहे हैं.
एफपी : डाक्टर मुर्मू, पशु शल्यचिकित्सक के तौर पर आपकी सफलता के लिए आप निश्चय ही बधाई के पात्र हैं. हमें बताएं कि कोलकाता के इतने जाने-माने पशु चिकित्सक बनने की आपकी राह कितनी कठिन या आसान रही?
एकेएम : (मुस्कुराते हुए)राह क्या कभी आसान हो सकती है? शायद नहीं. हमारे गांव में गरीबी पसरी हुई थी. ऐसे में, पशु शल्यचिकित्सक बनने कास्विप्न देखना, अपने-आप में एक युद्ध जीतने जैसा था. फिर, गरीबी की चक्की में पिसते हुए, इस सपने को पूरा करने का संघर्ष. मैंने सन 2000 में स्नातक परीक्षा पास करली थी परन्तु जल्दी ही मुझे यह समझ में आ गया कि केवल डिग्री से काम नहीं चलने वाला. व्यावहारिक ज्ञान और अनुभव भी उतने ही आवश्यक हैं. सन 2002 में जाकर मैं अपने लिए स्थान बना सका.
एफपी : आपकी सफलता के पीछे मुख्य कारक क्या थे?
एकेएम : कड़ी मेहनत, धैर्य और व्यावसायिक सोच. मेरे अनुभव और ताज़ा प्रकाशनों के ज़रिये चिकित्सा विज्ञान में हो रही नई-नई खोजों की अद्यतन जानकारी रखने की मेरी आदत ने भी मेरी मदद की.
एफपी : क्या आपके उपनाम के कारण आपको अपने काम में कोई परेशानी आयी?
एकेएम : अगर में कहूँ कि नहीं आयी, तो यह झूठ होगा. परन्तु कोलकाता ने मेरा खुलकर साथ दिया. अपने करियर की शुरुआत में, जब मैं ग्रामीण क्षेत्रों में काम करता था, तब ज़रूर मेरे उपनाम के कारण मुझे नीची निगाहों से देखा जाता था. (मुस्कुराते हुए) परन्तु इससे मुझे प्रेरणा ही मिली.
एफपी : आरक्षण के बारे में आपका क्या विचार है?
एकेएम वर्तमान टीएम.सी की सरकारों में कोई फर्क नहीं है. राजनेता यह अच्छी तरह से जानते हैं कि वे पिछडों के वोट तभी तक प्राप्त कर सकेगें जब तक कि पिछड़े, कमजोर और अविकसित बने रहेंगे. केंद्र सरकार के बारे में भी स्थिति यही है.
एफपी:आपकी दृष्टि में इस समस्या का क्या हल हो सकता है? पिछड़े वर्गों के लोगों के लिए आपका क्या सन्देश है?
एकेएम : एक आदर्श समाज में आरक्षण के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिये. परन्तु यह लक्ष्य हासिल करने के लिए, अस्थायी रूप से, सीमित और रचनात्मक आरक्षण ज़रूरी है और साथ ही ज़रूरी है, पिछडों के विकास के लिए निष्ठापूर्ण प्रयास. सरकारी स्कूलों में कोई फीस नहीं लगती परन्तु क्या उनमें पढ़ाई के स्तर की समय-समय पर जाँच की जाती है? पिछड़े वर्गों के बच्चों के लिए, ज़रूरत पडऩे पर, सरकारी खर्च पर निजी कोचिंग इत्यादि की व्यवस्था की जानी चाहिए. सभी के लिए पर्याप्त और उचित मात्रा में भोजन और आवश्यक स्वास्थ्य सुविधाओं की उपलब्धता सुनिश्चित करने को उच्चतम प्राथमिकता मिलनी चाहिए. अशिक्षा हमारे देश को भीतर से कमज़ोर कर रही है. जाति-आधारित घृणा और दंगों की जड़ में भी अशिक्षा ही है.
पिछड़े वर्गों के लोगों से मेरा अनुरोध यही है कि वे अपनी शिक्षा पर अधिक से अधिक ध्यान दें. शिक्षा ही असली कुंजी है. हमें सभी परेशानियों और तकलीफों को भूलकर, शिक्षा हासिल करने पर ध्यान देना चाहिए. हमें अंग्रेजी सीखने की भी ज़रूरत है. इससे हमें कई लाभ होंगे. हमें लड़ते रहना है और आगे बढ़ते रहना है.
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