Thursday, 25 July 2013

भाजपा की हिन्दू राजनीति बनाम कांग्रेस की जाति आधारित राजनीति

                                                                                                                       
                      -अर्नोल्ड क्रिस्टी

भारत में वोट बैंक की राजनीति के बगैर किसी राजनीतिक दल का काम नहीं चलता। यद्यपि यह कहा जाता है कि गुजरात में इन दिनों चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़े जा रहे हैं परन्तु सच यह है कि चाहे हाल के चुनाव हों या पूर्व के, सभी इस तथ्य को रेखांकित करते हैं कि गुजरात में जातिवादी राजनीति का वर्चस्व है। यह हाल में हुई एक चौंका देने वाली घटना से साबित होता है। गुजरात हो या देश का अन्य कोई हिस्सा सामान्यत: दलित या अन्य वंचित वर्गों के सदस्यों को उच्च जातियों के सामाजिक बहिष्कार का सामना करना पड़ता है। परन्तु मध्य गुजरात के आनंद जिले के कन्थारिया गांव में एक ऊंची जाति का पटेल परिवार इसलिए सामाजिक बहिष्कार का सामना कर रहा है, क्योंकि उस परिवार की एक महिला ने ग्राम पंचायत चुनाव में जीत हासिल करने के लिए ओबीसी दरबार समुदाय का सहयोग और समर्थन लिया। कन्थारिया के सभी पटेल उस महिला के परिवार का पूरी तरह बहिष्कार कर रहे हैं। महिला का अपराध मात्र यह है कि उसने पटेलों की धमकियों के आगे झुकना स्वीकार नहीं किया।
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी का दावा है कि विकास के कारण उन्हें चुनावों में एक के बाद एक जीत हासिल हो रही हैं परन्तु सच यह है कि आरएसएस और भाजपा द्वारा धर्म और जाति आधारित राजनीति को आधार बनाकर सफलता हासिल करने का एक फार्र्मूला ईजाद कर लिया है और इसी की सहायता से वह चुनाव में जीत हासिल करती आ रही है।
बंबई राज्य के दो हिस्से कर गुजरात को सन् 1960 में अलग राज्य बनाया गया था। सन 1962 में हुए चुनाव में आरएसएस की पूर्ववर्ती राजनीतिक शाखा जनसंघ को केवल एक प्रतिशत मत हासिल हुए थे। सन 1967 में हुए अगले चुनाव तक भी वह अपने मतों में मात्र एक प्रतिशत का इजाफा कर सका। जहां एक ओर जनसंघ कछुए की चाल से आगे बढ़ रहा था, वहीं जातिगत राजनीति का अत्यंत होशियारी से उपयोग कर कांग्रेस दिन-दूना
रात चौगुनी उन्नति कर रही थी। सन् 1972 और 1976 में हुए चुनाव में भी जनसंघ 10 प्रतिशत से अधिक मत नहीं पा सका। उसे इन दोनों चुनाव में 9 प्रतिशत मत हासिल हुए। सन् 1980 के विधानसभा चुनाव में आरएसएस ने जनसंघ का नया अवतार भारतीय जनता पार्टी को चुनाव मैदान में उतारा। इस चुनाव में भी भारतीय जनता पार्टी को केवल 14 प्रतिशत मत हासिल हुए और 5 साल बाद सन् 1985 में भाजपा के मतों के प्रतिशत में मात्र 1 प्रतिशत की वृद्धि हुई।
सन् 1970 के दशक में गुजरात की सबसे ताकतवर और प्रभुत्वशाली पटेल समुदाय ने कांग्रेस का साथ छोडऩा शुरू कर दिया था। इसके बाद कांग्रेस ने ओबीसी समुदायों को अपने झंडे तले लाने की कोशिश शुरू कर दी। कांग्रेस ने दलितों, आदिवासियों और मुसलमानों को भी अपनी ओर खींच लिया और इस गठबंधन जिसे केएचएएम या खाम (क्षत्रिय, हरिजन (दलित), आदिवासी और मुसलमान) कहा जाता था के सहारे वह 1985 तक चुनाव जीतती रही। खाम के जबरदस्त समर्थन के चलते मतों में कांग्रेस की हिस्सेदारी तेजी से बढ़ती गई। सन् 1975 में कांग्रेस को कुल मतों में से 40 प्रतिशत हासिल हुए। सन् 1980 में कांग्रेस के वोटों का प्रतिशत बढ़कर 51 हो गया और सन् 1985 में कांग्रेस लोकप्रियता के अपने चरम पर पहुंच गई। उसे 55 प्रतिशत मत हासिल हुए और कद्दावर ओबीसी नेता माधव सिंह सोलंकी के नेतृत्व में कांग्रेस ने 182 में से 149 सीटें जीत लीं। इस रिकार्ड को गुजरात में आज तक कोई राजनीतिक दल तोड़ नहीं सका है। परन्तु भाजपा और आरएसएस ने धर्म और जाति की राजनीति का अपना ब्राण्ड स्थापित कर कांग्रेस को उसी के खेल में मात दे दी। कांग्रेस का खाम गठबंधन चारों खाने चित्त हो गया।
आज कांग्रेस गुजरात में अपने अस्तित्व को बचाने के लिए संघर्ष कर रही है। हाल में हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने अपने 6 पुराने गढ़ भाजपा के हाथों गवां दिए। यह भाजपा द्वारा स्थानीय स्तर पर किए गए चुनाव प्रबंधन का परिणाम था।
भाजपा ने धर्म आधारित राजनीतिक तिकड़मों के जरिए खाम गठबंधन में से क्षत्रिय और दलितों को अपनी ओर खींच लिया। इस काम में भाजपा और संघ परिवार द्वारा शुरू किया गया रामजन्मभूमि आंदोलन बहुत काम आया। शनै:.शनै: गुजरात हिंदुत्व की प्रयोगशाल बन गई।
भाजपा और आरएसएस के हिन्दुत्व एजेण्डे ने कांग्रेस के खाम किले को पूरी तरह जमींदोज कर दिया है। वोटों में कांग्रेस की हिस्सेदारी 1985 में 55 प्रतिशत से गिरकर अगले दो दशकों में 30 प्रतिशत के आसपास सिमट गई। कांग्रेस की जाति आधारित राजनीति पर भाजपा की धर्म आधारित जातिवादी राजनीति भारी पड़ी। भाजपा ने कांग्रेस के आदिवासी वोट बैंक में भी सेंध लगा दी। इसमें आदिवासी क्षेत्रों में संघ द्वारा चलाई जा रही सामाजिक गतिविधियों ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। संघ ने वनवासियों के लिए कई कल्याण योजनाएं चलाईं। यहां यह महत्वपूर्ण है कि सन् 2002 के गुजरात दंगों में आदिवासियों ने मुसलमानों के खिलाफ  हिंसा में बढ-़चढ़ कर भाग लिया था।
पिछले दो दशकों से लगातार चुनाव हारते रहने के बावजूद कांग्रेस अब भी अपनी पुरानी जातिवादी राजनीति के सहारे चुनाव में जीत हासिल करना चाहती है। परन्तु समस्या यह है कि खाम का खात्मा करने के बाद भाजपा ने अपनी रणनीति बदल ली है। अब वह जाति की बजाय विकास और सुशासन की बात करने लगी है।
सन् 1992 में बाबरी मस्जिद के ढहाए जाने से एक हिंदुत्ववादी लहर गुजरात सहित पूरे देश में फैल गई थी। भाजपा की विधानसभा चुनाव में जीत के पीछे इस हिंदुत्ववादी लहर का महत्वपूर्ण योगदान था। सन् 2002 में गुजरात में हुए दंगों ने भाजपा को अगला चुनाव जीतने में मदद की। परन्तु सन् 2012 में भाजपा गुजरात में इस तथ्य के बावजूद सत्ता हासिल करने में इसलिए सफल रही, क्योंकि पार्टी में आंतरिक असंतोष अपने चरम पर था। अपनी इस विजय के लिए भाजपा ने जातिवादी राजनीति का सहारा लिया और हिंदुत्व व विकास के सीमेण्ट से अपने जातिवादी किले को मजबूती दी। हिंदुत्व, विकास और जातिगत राजनीति के मॉडल का इस्तेमाल कर भाजपा ने गुजरात में अपना एक ऐसा वोट बैंक तैयार कर लिया है, जिसमें समाज के सभी वर्ग शामिल हैं। उच्च वर्ग, ओबीसी, दलित, आदिवासी और यहां तक कि कुछ मुसलमान भी। मोदी के नेतृत्व में भाजपा ने जातिवादी राजनीति को नई बुलन्दियों तक पहुंचा दिया है। भाजपा के मतदाता अब भी उसे जाति के आधार पर वोट देते हैं परन्तु हिंदुत्व और विकास के झण्डे तले। यही कारण है कि 2012 के विधानसभा चुनाव में केशुभाई पटेल के विद्रोह और शक्तिशाली लेउवा पटेल समुदाय की नाराजगी के बाद भी भाजपा चुनाव जीतने में सफल रही। लेउवा और कडवा पटेल वोट बैंकों को विभाजित करने की रणनीति असफल सिद्ध हुई और केशुभाई पटेल की पार्टी केवल दो सीटें जीत सकी। इसी तरह अभी हाल में उपचुनाव में भाजपा ने 6 की 6 सीटें जीत लीं, जिनमें लोकसभा की दो सीटें शामिल हैं।
हालिया उपचुनाव में लिम्बाडी विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस ने इलाके में कोली मतदाताओं की बहुसंख्या को देखते हुए सांसद सोमा भाई पटेल जो कि एक कोली हैं, के पुत्र को अपना उम्मीदवार बनाया। भाजपा के उम्मीदवार कीरतराम क्षत्रिय समुदाय से थे। इस समुदाय का इलाके में कोई खास बोलबाला नहीं है परन्तु इसके बावजूद भाजपा वहां चुनाव जीत गई। इससे यह साफ  है कि गुजरात के मतदाता अब केवल जाति के आधार पर मत देने को तैयार नहीं हैं।
परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि गुजरात को जातिवादी राजनीति से मुक्ति मिल गई है। दिसम्बर, 2012 के विधानसभा चुनाव में नरेन्द्र मोदी के एक मजबूत उम्मीदवार व प्रभावशाली मंत्री जयनारायण व्यास को कांग्रेस के भावसिंह राजपूत ने जातिगत समीकरणों के चलते धूल चटा दी थी। कुल मिलाकर मोदी और भाजपा ने गुजरात के मतदाताओं की जातिवादी मानसिकता को अच्छी तरह से समझ लिया है। परन्तु वे चुनावी विजय के लिए केवल जातिवादी समीकरणों पर निर्भर नहीं हैं। सही उम्मीदवार का चुनाव और मतदाताओं को हिंदुत्व व विकास की चटनी चटाकर भाजपा गुजरात में लगातार विजयी पताका फहराती जा रही है।
                                                              (Published in  Forward Press,  July, 2013 Issue)
   Forward Press.

3 comments:

  1. जाति आधारित राजनीति भारत का सच है.

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