Friday 26 July 2013

व्यावाहारिक कदम समय की मांग-रामदास आठवले


                                                                                                                       -संजीव चंदन
हिंदी पट्टी सहित देशभर में पिछड़ी जातियों और दलितों में आधार कमजोर होने के बाद से ही कांग्रेस की एकछत्र राजनीति खत्म हुई थी। तमिलनाडु, बिहार, यूपी सहित कई राज्यों में कांग्रेस पानी मांग रही है। लोकसभा चुनाव होने वाले हैं। नरेन्द्र मोदी के लिए बनाए जा रहे माहौल के साथ दक्षिणपंथी राजनीति के दिन बहुरते दिखाई दे रहे हैं। दलित राजनीति के बड़े पुरोधा और आरपीआई के नेता रामदास अठावले का दो साल पहले शिवसेना के साथ
चला जाना भी दक्षिणपंथी राजनीति की एक बढ़त ही है। आठवले हमेशा से साम्प्रदायिकता के खिलाफ  मुखर आवाज रहे हैं और उनकी राजनीति कट्टरपंथियों के खिलाफ  चट्टान की तरह खड़ी रही है। चाहे बाला साहब ठाकरे की कट्टरपंथी राजनीति रही हों या राज ठाकरे की।
हालांकि आठवले की इस शिफ्ट का असर हुआ है कि उनके पहले से चले आ रहे आरक्षण को बिना छेड़े अब सवर्ण गरीबों के लिए भी आरक्षण देने की मांग करने लगे हैं और शिवसेना के नेतृत्व उद्धव ठाकरे को अपने दादाजी प्रबोधनकार ठाकरे की जाति वर्चस्वता के खिलाफ  विचारधारा और राजनीतिक पक्षधरता याद आने लगी है। क्या आठवले दक्षिणपंथी राजनीति के लिए चेक एंड बैलेंस की भूमिका में होंगे। ऐसे कई सवालों के दायरे में रामदास अठावले से फारवर्ड प्रेस के रोविंग संवाददाता संजीव चंदन ने आठवले से बातचीत की।

संजीव चंदन : शिवसेना के रास्ते एनडीए में जाने और एक झटके में राष्ट्रवादी कांग्रेस का साथ छोडऩे का निर्णय कैसे हुआ ? 
रामदास अठावले : कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी के साथ तो हमारी पार्टी आरपीआई काफी दिनों से थी। 90 से ही कांग्रेस के साथ मेरा व्यक्तिगत अनुभव बुरा भी नहीं था लेकिन इन दोनों पार्टियों की रुचि आरपीआई से लोकसभा, विधानसभा या राज्यसभा और विधान परिषद में हमारे एक-एक सदस्य भेजने भर में थी। उनके द्वारा सत्ता सिर्फ  मुझ तक ही सीमित रहती थी। उनकी रुचि सत्ता में हमारी आरपीआई की सक्रिय भागीदारी में नहीं थी। जब लोकल बॉडी के चुनाव होते थे, तब वे हमारी भागीदारी के सवाल को दरकिनार कर देते थे। इससे हमारे कार्यकर्ताओं में रोष था। वे देख रहे थे कि चुनाव के वक्त तो उनकी मदद ली जाती है लेकिन लोकल बॉडी में और स्थानीय विकास कार्यों में हमारी कोई सहभागिता नहीं बनाने दी जाती थी। जब मैं 2004 में लोकसभा में चुनकर आया और एनडीए के बाद कांग्रेस की सरकार बनी तो मंत्रिमं
ल में आरपीआई के लिए कोई जगह नहीं दी गई।अगर आरपीआई को मंत्रीपद मिलता तो बाबा साहब के बाद आरपीआई को बहुत अरसे से मंत्रीपद न मिलने की क्षतिपूर्ति हो सकती थी। बाबा साहब नेहरू के मंत्रिमंडल में कानून मंत्री थे लेकिन यहां भी कांग्रेस ने मेरे अकेले होने के बहाने से ऐतिहासिक चूक की।

संजीव चंदन : सत्ता ज्यादा जरूरी है या विचारधारा ? 
रामदास अठावले : विचारधारा तो जरूरी है ही लेकिन अपने देश में विचारधारा आधारित राजनीति कई बार धोखा खाती है, इसीलिए यहां कई बार व्यावहारिक राजनीति मात्र विचारधारा में शुष्कता के साथ बने रहने से नहीं होती। मैं या मेरी पार्टी विचारधारा तो छोडऩे वाली है नहीं। लेकिन अभी समय की मांग थी कि एक व्यावहारिक कदम नहीं उठाया जाए। आपने पूछा था कि शिवसेना के साथ जाने का निर्णय कैसे हुआ ? दरअसल जब बाला साहब ठाकरे ने मुझसे कहा कि शिवसेना के साथ यदि आरपीआई आती है तो महाराष्ट्र की राजनीति बदल जाएगी। विधान सभा पर नीला और भगवा झंडा लहराएगा। मतलब सत्ता में शिवसेना के साथ आरपीआई की भागीदारी भी होगी। इस प्रस्ताव पर हमारी पार्टी और समाज के लोगों की राय थी कि बाला साहब के प्रस्ताव के साथ जाया जाए। एक बदलाव की जरूरत है। हमारे समाज के राजनीतिक-सामाजिक कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी, साहित्यकारों ने हमसे कहा कि अपनी विचारधारा पर बने रहकर भी यह प्रयोग किया जा सकता है। कॉमन मिनिमम प्रोग्राम के आधार पर। इस तरह के प्रयोग पहले भी हो चुके हैं । इंदिराजी की
इमरजेंसी के बाद मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार में लालकृष्ण आडवाणी, जगजीवन राम, एसएम जोशी सरीखे अलग-अलग विचारधारा और पार्टी के लोग एक साथ आए। यह कोई विचारधारा का समझौता नहीं है।

संजीव चंदन : लेकिन महाराष्ट्र में आरपीआई के मतदाताओं की एक परंपरा है जो हिंदी पट्टी के दलित नेतृत्व वाली पार्टियों के मतदाताओं से अलग है। आपके कार्यकर्ताओं का कई कारणों से सत्ता में भागीदारी के सवाल पर या फिर विकास कार्यों में भागीदारी के सवाल पर या दूसरे अन्य कारणों से नाराजगी के कारण शिवसेना-बीजेपी के साथ जाने का निर्णय हो सकता है लेकिन आपके मतदाताओं की धर्मनिरपेक्ष परंपरा रही है ?
रामदास अठावले : मतदाता शिफ्ट हो रहा है, तभी मैं शिफ्ट हुआ। जो लोग यह सवाल कर रहे हैं उन्हें खूब पता है कि ऐसे गठबंधन पहले भी होते रहे हैं। पुणे में लोकल बॉडी में राष्ट्रवादी कांग्रेस, शिवसेना और भाजपा ने मिलकर पहले भी सत्ता पाई है। बीजेपी और शिवसेना के विदर्भ के मुद्दे पर अलग-अलग विचार हैं लेकिन वे भी मिलकर चुनाव लड़ते हैं, जब राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी 1999 में सोनियाजी के विदेशी मूल के सवाल पर कांग्रेस से अलग होकर नई पार्टी बनी और उसने अलग चुनाव भी लड़ा। परन्तु तीन महीने के भीतर सत्ता के सवाल पर वे फिर से एक साथ हो गए। विदेशी मूल का मुद्दा तो आज भी वैसे ही गंभीर है, यानी जब सत्ता के लिए वे सब एक साथ हो सकते हैं तो मुझे ही कठघरे में क्यों खडा किया जा रहा है! हम तो सेकुलर हैं ही। कल भी थे, आज भी हैं और कल भी रहेंगे। आज हम विकास के मुद्दे पर, मंहगाई के मुद्दे पर, भ्र-टाचार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस-एनसीपी के खिलाफ  शिवसेना-भाजपा गठबंधन के साथ हैं। कॉमन मिनिमम प्रोग्राम पर हम एक साथ आए हैं।

संजीव चंदन : अब तक तो कांग्रेस की सेक्युलर राजनीति ही आपका उनके साथ होने का कारण रही है! 
रामदास अठावले : कांग्रेस केवल सेक्युलर, सेक्युलर बोलकर राजनीति करती है। आज गावों में जो दलित जनता पर अत्याचार होते हैं, उसमें अधिकांश अत्याचार कांग्रेस-एनसीपी के समर्थक ही करते हैं। शिवसेना-भाजपा ने महाराष्ट्र में अपने गठन के समय से ही गरीबों को अपनी पार्टी का आधार बनाया। गरीबों को टिकट दिए, नवयुवकों को टिकट दिए। उन लोगों को राजनीति में शिवसेना ने लाया जो कांग्रेस की अमीरपरस्त राजनीति के कारण हाशिए पर थे। शिवसेना-भाजपा का आधार पिछड़ी जातियों में बड़े पैमाने पर है, क्योंकि उन्होंने उन्हें अवसर दिए। ठीक है कि उन पर वैचारिक स्तर पर कुछ आरोप हैं। कांग्रेस सिर्फ  महात्मा गांधी की बात करती है, सेक्युलर होने का शोर करती है। काफी लंबे समय तक गावों में, पंचायतों में, लोकल निकायों में कांग्रेस का ही कब्जा रहा है। सवाल है कि उन्होंने गरीबों, दलितों, पिछड़ों के लिए क्या किया ? लेकिन गांव-गांव में जातिवाद बढ़ाने का काम कांग्रेस के ही लोगों ने किया है और सेक्युलरवाद के नाम पर हमें ठगने का काम भी।
                                                     (Published in  Forward Press,  July, 2013 Issue)
Forward Press.

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